राजस्थान कि क्षेत्रीय बोलियाँ
डॉ. ग्रियर्सन ने राजस्थानी बोलियों को पाँच मुख्य वर्गों में विभक्त किया है। मगर सामान्यतया राजस्थान की बोलियों को दो भागों में बाँटा जा सकता है
क. पश्चिमी राजस्थानी-मारवाड़ी, मेवाड़ी, बागड़ी, शेखावाटी।
ख. पूर्वी राजस्थानी-ढूंढाड़ी, हाड़ौती, मेवाती, अहीरवाटी (राठी)।
1. मारवाड़ी
पश्चिमी राजस्थान की प्रमुख बोली मारवाड़ी क्षेत्रफल की दृष्टी से राजस्थानी बोलियों में प्रथम स्थान रखती है। यह मुख्य रूप से जोधपुर, पाली, बीकानेर, नागौर, सिरोही, जैसलमेर, आदि जिलों में बोली जाती है। मेवाड़ी, बागड़ी, शेखावाटी, नागौरी, खैराड़ी, गोड़वाड़ी आदि इसकी उपबोलियाँ हैं। विशुद्ध मारवाड़ी जोधपुर क्षेत्र में बोली जाती है। मारवाडी बोली के साहित्यिक रूप को 'डिंगल' कहा जाता है। मारवाडी बोली का साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। अधिकांश जैन साहित्य 'मारवाड़ी' बोली में ही लिखा गया है। राजिया के सोरठे, वेलि किसन रूकमणी री, ढोला-मरवण, मूमल आदि लोकप्रिय काव्य इसी बोली में हैं।
2. मेवाड़ी
मेवाड़ी बोली उदयपुर, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़ व राजसमन्द जिलों के अधिकांश भाग में बोली जाती है। मेवाड़ी बोली में साहित्य सर्जना कम हुई है। फिर भी इस बोली की अपनी साहित्यिक परम्परा है। कुम्भा की 'कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति' में मेवाडी बोली का प्रयोग किया गया है। मोतीलाल मेनारिया ने मेवाड़ी को मारवाड़ी की ही उपबोली माना है। मेवाड़ी तथा मारवाडी बोली की भाषागत विशेषताओं में साम्य है। इसी कारण मारवाडी साहित्य में मेवाड़ी का भी योगदान है। मेवाड़ी में 'ए' और 'ओ' को ध्वनि का विशेष प्रयोग होता है। मारवाड़ के बाद यह राजस्थान की दूसरी महत्त्वपूर्ण बोली है।
3. बागड़ी
डूंगरपुर और बाँसवाडा का सम्मिलित क्षेत्र 'बागड़' कहलाता है इस क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली 'बागडी' कहलाती है। बागड़ प्रदेश गुजरात के निकट है, इस कारण इस बोली पर गुजराती प्रभाव भी परिलक्षित होता है। यह बोली मेवाड़ के दक्षिणी भाग, अरावली प्रदेश एवं मालवा तक बोली जाती है। ग्रियर्सन ने इसे 'भीली' बोली कहा है। इसमें 'च' और 'छ' का उच्चारण 'स' किया जाता है तथा भूतकालिक सहायक क्रिया 'था' के स्थान पर 'हतो' का प्रयोग किया जाता है। इस बोली में प्रकाशित साहित्य का लगभग अभाव है।
4. ढूंढाड़ी
ढूँढाडी पूर्वी राजस्थान की प्रमुख बोली है जो किशनगढ़, जयपुर, टोंक, अजमेर, और मेरवाड़ा के पूर्वी भागों में बोली जाती है। यह बोली गुजराती एवं ब्रजभाषा से प्रभावित है। हाड़ौती, तोरावाटी, चौरासी, अजमेरी, किशनगढ़ी आदि इसकी प्रमुख उपबोलियाँ हैं। दादूपंथ का अधिकांश साहित्य इसी बोली में लिपिबद्ध है। ईसाई मिशनरियों ने बाईबिल का ढूँढाड़ी अनुवाद भी प्रकाशित किया था। साहित्य की दृष्टि से समृद्ध है। इस बोली में वर्तमान काल के लिए, 'छै' एवं भूतकाल के लिए 'छी', 'छौ' का प्रयोग होता है।
5. मेवाती
मेवाती बोली अलवर, भरतपुर, धौलपुर, और करौली के पूर्वी भाग में बोला जाती है। मेवाती बोली पर ब्रजभाषा का प्रभाव दष्टिगत होता है। साहित्य का दृष्टि से यह बोली समृद्ध है। संत लालदास, चरणदास, दयाबाई, सहजोबाई, डूंगरसिह आप की रचनाएँ मेवाती बोली में हैं।
6. मालवी
मालवी बाला झालावाड़, कोटा एवं प्रतापगढ के कछ क्षेत्रों में बोली जाती है। यह कोमल एवं मधुर बोली है। इसकी विशेषता सम्पर्ण क्षेत्र में इसकी एकरूपता है। काल रचना में हो, ही के स्थान पर थो, थी का प्रयोग होता है। इस बोला पर गुजराती एवं मराठी भाषा का भी न्यूनाधिक प्रभाव देखने को मिलता है।
7. हाडौती
कोटा, बून्दी, बारां और झालावाड़ क्षेत्र को हाड़ौती कहा जाता है। इस क्षेत्र में प्रचलित बोली हाड़ौती कहलाती है। इसे ढूंढाड़ी की उपबोली माना जाता है। इस बोली पर गुजराती व मारवाड़ी का प्रभाव भी है। बून्दी के प्रसिद्ध कवि सूर्यमल्ल मीसण की रचनाओं में हाड़ौती का प्रयोग मिलता है।
8. अहीरवाटी (राठी)
अहीरवाटी बोली अलवर जिले की बहरोड, मुण्डावर तथा किशनगढ़ के पश्चिमी भाग व जयपुर जिले की कोटपूतली तहसील में बोली जाती है। प्राचीन काल में आभीर जाति की एक पट्टी इस क्षेत्र में आबाद हो जाने से यह क्षेत्र अहीरवाटी या हीरवाल कहा जाता है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस बोली क्षेत्र को राठ एवं यहाँ की बोली को राठी भी कहा जाता है। यह देवनागरी, गुरुमुखी तथा फारसी लिपि में भी लिखी मिलती है। कवि जोधराज का हम्मीर रासो' और शंकरराव का 'भीमविलास' इसी बोली में हैं।
9. रांगड़ी
यह बोली मुख्यतः राजपूतों में प्रचलित है, जिसमें मारवाड़ी एवं मालवी का मिश्रण पाया जाता है। यह बोली कर्कशता लिए होती है।
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