• कठपुतली चित्र

    राजस्थानी कठपुतली नृत्य कला प्रदर्शन

सोमवार, 27 अप्रैल 2015

Jain Temple of Rajasthan-राजस्थान के प्रमुख जैन मंदिर

1. दिगम्बर जैन तीर्थ श्रीमहावीरजी-
जैन धर्मावलंबियों की आस्था का प्रमुख केंद्र यह मंदिर करौली जिला मुख्यालय से 29 किमी दूर श्री महावीरजी नामक स्थान पर स्थित है। यह मंदिर संपूर्ण भारत के जैन धर्म के पवित्र स्थानों मेंसे एक है। गंभीर नदी के तट पर स्थित इस मंदिर में जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी की प्रतिमा स्थापित है। यह मंदिर प्राचीन व आधुनिक जैन वास्तुकला का अनुपम संगम है। यह मंदिर मूल रूपसे सफेद व लाल पत्थरों से बना है तथा इसमें चारों ओर छत्रियाँ बनी हुई हैं। इस विशालकाय मंदिर के ऊँचे धवल शिखर को स्वर्ण कलशों से सजाया गया है। इसमें अन्य जैन तीर्थंकरों की भव्य मूर्तियाँ भी प्रतिष्ठित हैं। मंदिर की दीवारों पर की गई स्वर्ण पच्चीकारी इसके स्वरूप को अत्यंत कलात्मक स्वरूपप्रदान करती है। मंदिर के सामने सफेद संगमरमर से बने ऊँचा भव्य मानस स्तंभ में महावीर की मूर्ति है। कहा जाता है कि भगवान महावीर की यह प्रतिमा यहाँ खुदाई मेँ एक व्यक्ति को प्राप्त हुई थी। प्रतिमा के उद्भव स्थल पर चरण चिह्न एक सुंदर छत्री मेँप्रतिष्ठित हैं।छत्री के सम्मुख ही प्रांगण में 29 फुट ऊँचा महावीर स्तूप निर्मित है।
2. जैन तीर्थ दिलवाड़ा (माउन्ट आबू)-
देश-विदेशों मेंविख्यात राजस्थान के सिरोही जिले में स्थित ये मंदिर , पाँच मंदिरों का एक समूह है। इन मंदिरों का निर्माण ग्यारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के मध्य हुआ था। जैन वास्तुकला के उत्कृष्ट प्रतीक ये शानदार मंदिर जैन धर्म के तीर्थंकरों को समर्पित हैं। दिलवाड़ा के मंदिरों में ' विमल वासाही मंदिर ' प्रथम तीर्थंकर को समर्पित है। यह सर्वाधिक प्राचीन है जो 1031 ई. में बना था। बाईसवें र्तीथकर नेमीनाथ को समर्पित 'लुन वासाही मंदिर ' भी काफी लोकप्रिय है। इसे 1231 ई.
में वास्तुपाल और तेजपाल नामक दो भाईयों द्वारा बनवाया गया था। दिलवाड़ा जैन मंदिर परिसर में स्थित पाँचों मंदिर संगमरमर से निर्मित हैं। मंदिरों में 48 स्तम्भों में नृत्यांगनाओं की आकर्षक आकृतियां बनी हुई हैं। दिलवाड़ा के पाँचों मंदिरोँ की विशेषता यह है कि उनकी छत, द्वार , तोरण , सभा-मंडप पर उत्कृष्ट शिल्प एक दूसरे से बिलकुल भिन्न है । संगमरमर के प्रत्येक पत्थर और खम्भे पर की गई उत्कृष्ट नक्काशी शिल्पकला की अनूठी मिसाल है, जिसे पर्यटक अपलक निहारता ही रह जाता है।
3. रणकपुर जैन तीर्थ -
पाली जिले में सादड़ी गाँव से 8 किमी दूरी पर स्थित रणकपुर जैन धर्म के पांच प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक है। यह स्थान चित्ताकर्षक रूपसे तराशे गए प्राचीन जैन मंदिरों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। इनका निर्माण 15
वीं शताब्दी में राणा कुंभा के शासनकाल में हुआ था। ये जैन मंदिर भारतीय स्थापत्य कला एवं वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। इस मंदिर को "त्रेलोक्य दीपक" भी कहा जाता है। यहाँ का मुख्य मंदिर प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान आदिनाथ (ऋषभदेव) का "चौमुख मंदिर" है जिसका निर्माण धन्ना शाह एवं रत्ना शाह द्वारा कराया गया। इसके निर्माण में शिल्पज्ञ देपाक सोमपुरा के निर्देशन में पचास से अधिक शिल्पियों ने कार्य किया था। यह मंदिर चारों दिशाओं में खुलता है। इसका निर्माण 1439 का माना जाता है। संगमरमर से निर्मित इस सुंदर मंदिर में 29 विशाल कक्ष तथा 14 स्तम्भ हैं।इस मंदिर के गलियारे में बने मंडपों में सभी 24 तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ हैं। सभी मंडपों में शिखर हैं औरशिखर के ऊपर घंटी लगी है। परिसर मेंही नेमीनाथ और पार्श्वनाथ के भी दो मंदिर हैं जिनकी नक्काशी खजुराहो की याद दिलाती है। यहाँ 8 वीं सदी में नागर शैली में निर्मित सूर्य मंदिर भी है जिसकी दीवारों पर योद्धाओं और घोड़ों के चित्र उकेरे गए हैं। रणकपुर के मंदिर 48 हजार वर्गफीट के घेरे में हैं जिनमें 24 मंडप, 85 शिखर व 1444स्तम्भ है।
4. दिगम्बर जैन तीर्थ केसरियाजी-
उदयपुर से लगभग 40 किमी दूर गाँव धूलेव मेंस्थित भगवान ऋषभदेव का यह मंदिर केसरिया जी या केसरिया नाथ के नाम से जाना जाता है। यह प्राचीन तीर्थ अरावली की कंदराओं के मध्य कोयल नदी के किनारे पर है। ऋषभदेव मंदिर को जैन धर्म का प्रमुख तीर्थ माना जाता है। यह मंदिर न केवल जैन धर्मावलंबियों अपितु वैष्णव हिन्दूओं तथा मीणा और भील आदिवासियों एवं अन्य जातियों द्वारा भी पूजा जाता है। भगवान ऋषभदेव को तीर्थयात्रियों द्वारा अत्यधिक मात्रा में केसर चढ़ाए जाने के कारण उन्हें केसरियाजी कहा जाता है। यहाँ प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान आदिनाथ या ऋषभदेव की काले रंग की प्रतिमा स्थापित है। यहाँ के आदिवासियों के लिए ये केसरियाजी "कालिया बाबा" के नाम से प्रसिद्ध वपूजित है ।
5. नसियाँ जैन मंदिर अजमेर-
इस मंदिर को "लाल मंदिर" के नाम से प्रसिद्ध है । यह रणकपुर और माउंट आबू के पश्चात राजस्थान के उत्कृष्ट जैन मंदिरों में से एक है । नसियाँ मंदिर का निर्माण 1864 AD में प्रारंभ किया गया तथा यह 1895 AD में बन कर पूर्ण हुआ। यह मंदिर प्रथम जैन तीर्थँकर ऋषभदेव को समर्पित है। द्विमंजिल संरचना के इस मंदिर की दूसरी मंजिल पर एक बड़ा हॉल है जिसमें जैन धर्म व दर्शन को अभिव्यक्त करती हुई कृतियां उपलब्ध है। यहाँ इस मंदिर से संलग्न एक सुंदर म्यूजियम भी है ।इस मंदिर के प्रथम तल को ' स्वर्ण नगरी हॉल ' कहा जाता है । इसमें देश के प्रत्येक जैन मंदिर की सोने से बनाई गई प्रतीकृतियां सुसज्जित है । एक अनुमान है कि इनके निर्माण में तकरीबन 1000 kg सोना उपयोग में आया है ।

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आबूरोड के पास सियावा का आदिवासी गणगौर मेला , मेले की अनोखी 'खीचना' की परम्परा

             आबूरोड के पास सियावा का गणगौर मेला , मेले की  अनोखी  'खीचना' की परम्परा 
भले ही आदिवासी समाज शिक्षा व विकास के अन्य पैमानों पर पिछड़ा हुआ हो ,लेकिन समाज के बीच एक परम्परा इसे अलग ही पहचान देती है |जो अन्य लोगों के लिए आज भी असम्भव सी और विस्मित कर देने वाली सी लगती है |इस समाज में यह परम्परा युवक युवतियो को उनकी पसंद से जीवनसाथी चुने जाने की आजादी देती है |दोनों एक दूसरे को  पसंद कर ले और फिर दोनों आपस में सहमत हो तो विवाह कर ले |यदि दोनों को लगे की उनके परिजन इसके लिए तैयार नहीं होंगे तो दोनों अपना गाँव छोड़कर दूसरे गाँव में रहने लगते हैं |अपना जीवन बिताते है और फिर एक दिन ऐसा भी आता है जब दोनों का विवाह कर सामाजिक स्वीकृति दे दी  जाती है|यह सारी परम्पराए निभाई जाती है समाज के सियावा मेले में|
...........तो बच्चे करवाते है शादी 
कई बार ऐसा भी होता है की लम्बे समय तक दोनों को परिजनों की सहमति नहीं मिलती|दोनों के बच्चे हो जाते हैं ,वे बड़े होते है |परम्परानुसार वे भी मेले में अपना जीवनसाथी चुनते है और फिर उन दोनों के विवाह में माता पिता का विवाह भी होता है |
बाद में होता है विवाह  
एक दूसरे को पसंद कर लेने के बाद दोनों चुपचाप मेले से निकल जाते है |इसे खीचना प्रथा कहते है|कुछ दिन बाद परिजन उनके रिश्ते को स्वीकार कर लेते है और फिर वधु पक्ष के लोग वर पक्ष के घर पहुचते है और एक निर्धारित स्थान पर पञ्च पटेलो की मौजूदगी में पंचायती के बाद रीती रिवाजो के अनुसार विवाह करवा दिया जाता है|
छोड़ देते है अपना गाँव 
मेले में जीवनसाथी चुने जाने के बाद कई बार युवक युवती को परिजनों के विरोध का भी सामना करना पड़ता है |ऐसे में वे अपना गाँव छोड़कर दूसरे गाँव में रहने लगते है|हालाँकि इस दौरान समाज के अन्य लोग परिजनों से समझाइश करते है |यदि परिजन नहीं मानते तो दोनों दूसरे गाँव में रहते हुए अपना जीवन बिताते है|
कहलाता है गणगौर मेला    
आदिवासियों के बीच यह मेला काफी प्रसिद्ध है|बताया जाता है की जब समाज बसा था उस समय से यह मेला आयोजित होता आ रहा है |पूरे साल इसका इंतज़ार  रहता है |आबूरोड शहर से करीब आठ किलोमीटर दूर अम्बाजी रोड पर सियावा गाँव के निकट इसका आयोजन होता है जो कई सालो से चला आ रहा है|इस मेले को गणगौर का मेला भी कहा जाता है|जिसमे महिलाये गणगौर की पूजा करती है |उसके चारो ओर नृत्य करती है |मेला एक दिन पहले रात को शुरू होता है और दूसरे दिन शाम तक चलता है|इसी मेले में आदिवासी समाज अपने रिश्ते तय करता है|अपने सभी सगे सबंधियो को आमंत्रित करता है|हालाकि मेले में युवाओ की अधिक भीड़ होती है ,लेकिन मेले के आयोजन की सारी जिम्मेदारी बुजुर्ग निभाते है|



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World famous sword of Sirohi-विश्व विख्यात सिरोही की तलवार

सिरोही की तलवार को पहचान दिलाने वाले परिवार में सबसे बुजुर्ग प्यारेलाल के हाथों में आज भी वह हुनर मौजूद है जो पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हें मिलता रहा और जिसकी बदौलत सिरोहीं की तलवार को देश दुनिया में पहचान मिली |
62 वर्षीय प्यारेलाल कई सालों से तलवारें बना रहे है , लेकिन फिर भी जब भी मौका मिलता है वे तलवार को ढालने लगते है |आज भी लोहे पर ऐसी सटीक चोट करते है की तलवार की धार वैसी ही जैसी कई सालों पहले रहा करती थी |लोग आज भी उन्हें ढूंढते हुए उस गली तक आ पहुचते हैं जहाँ प्यारेलाल तलवार बनाने का काम  करते हैं |पिता की ढलती उम्र और साथ छोड़ते स्वास्थ्य के कारण अहमदाबाद में रहने वाले बेटे ने भी कई बार कहा की आप मेरे साथ चलिए ,लेकिन वे नहीं माने|कहा की जब तक हिम्मत है ये तलवारे बनाता रहूँगा |गौरतलब है की प्यारेलाल इतिहास  की स्वर्णिम पन्नों में दर्ज सिरोही की प्रसिद्ध तलवारे में माहिर परिवार के आखिरी शिल्पकार है |जो रियासत काल से ही तलवार बनाते आ रहे हैं |

इस खासियत की वजह से मिली प्रसिधी 
सिरोही तलवार की यह खासियत है की आज के मशीनी युग में भी लोहे को गर्म करके सिर्फ हथौड़े की सहायता से तैयार की जाती है |पुराने ज़माने में रोठी व जहरीले पर्दाथों के मिश्रण से यह तलवार तैयार होती थी |इसके बाद तलवार बनाने का मेटेरियल मालवा (मध्य प्रदेश ) से आने लगा |मालवा का लोहा गोल बाँट की तरह  होता था , जिसे भट्टी में तपाकर हथौड़े से कूट कर पट्टीनुमा बनाया जाता था |इस पट्टी को बार बार भट्टी में तपाकर तलवार का रूप दिया जाता था |अब यह मेटेरियल अहमदाबाद से आता है , जिसे नंबर के आधार पर ख़रीदा जाता है |शिल्पकार प्यारेलाल मालवीय बताते हैं की सिरोही की तलवार 27 से 31 इंच तक लम्बाई में बनाई जाती है |सिरोही की तलवार बनाने में एक किलोग्राम लोहे को काम में लिया जाता है |लोहे को भट्टी में तपाकर तलवार को अंतिम रूप देने तक यह वजन घटकर 900 ग्राम रह जाता है |यह तलवार वजन में काफी हल्की होती है , लेकिन काम में लेने पर न तो मुडती है और न टूटती है |जितनी अधिक काम में लेंगे उतनी ही धारदार होगी |

दिल्ली के म्यूजियम में बढ़ा रही है शोभा 
सिरोही  की प्रसिद्ध तलवार दिल्ली के म्यूजियम में हमारी शोभा बढ़ा रही है |देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु जब 18 अक्टूबर  1958 को सिरोही आए , तब शिल्पकार प्यारेलाल के पिता टेकाजी ने उन्हें सिरोही की तलवार के साथ उनके हाथों से बनाए धनुष ,बाण ,खड़क व पेशकस भेट किए थे |पंडित नेहरु लोह धातु शिल्पकला को देखकर बेहद कुश हुए |आज भी यह पाँचों चीजें दिल्ली के म्यूजियम में टेकाजी पुत्र केसाजी सिरोही के नाम से हमारी शोभा बढ़ा रही है |शिल्पकार प्यारेलाल बताते है की उनके पूर्वजों को इस कला की बदौलत राजा महाराजाओ ने खूब सम्मान दिया |प्यारेलाल को भी वर्ष 2009 में जोधपुर में आयोजित इंटेक सिल्वर जुबली अवार्ड सेरेमनी में जोधपुर के नरेश गजसिंह व तत्कालीन महापौर रामेश्वरलाल दाधीच ने सम्मानित किया था |

इस प्रकार की होती थी तलवारें 
                                                                 साकीला 
साकीला एक सीधी तलवार होती थी जो रोटी की तरह ही बनाई जाती थी |तलवार के बीच का भाग दबा हुआ होता था |इसके बारे में एक कहावत मशहूर है की 
जो बांधे साकीला वो फिरे अकेला 

                                                                नलदार  
यह चन्द्र आकार की तलवार होती थी |यह फौलाद से बनाई जाती थी |जिसके फाल के बीच में एक नाल होती थी |

                                                              मोतीलहर 
यह  फौलाद से बनी हुई तलवार होती थी , जिसके बीच में जगह जगह (स्लोट) बनाकर छर्रे डाले जाते है जब तलवार को म्यान से बाहर निकालते है तो छर्रे आगे पीछे होने से आवाज आती थी |

                                                               लहरिया 
यह तलवार अंग्रेजी में v आकार के फौलाद के टुकड़ों को जोड़कर बनाई जाती है तथा पीट पीटकर एक रूप बनाया जाता था |इस तलवार को सम्मानित व्यक्तियों एवं राजाओ के पास रखने की प्रथा थी |


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शनिवार, 25 अप्रैल 2015

परीक्षा मार्गदर्शन प्रश्नोत्तरी(भाग -3) राजस्थान की भोगोलिक स्थिति{Geographic position of Rajasthan}

राजस्थान की भोगोलिक स्थिति
{Geographic position of Rajasthan}
#. राज्य की कुल स्थलीय सीमा की लम्बाई है
Ans:- 5920 किमी
#. Rajasthan का पाकिस्तान से लगाती सर्वाधिक लम्बी सीमा वाला जिला
कोनसा है ?
Ans:- जैसलमेर (471 Kms)
#. Rajasthan की सीमा किस राज्य से सर्वाधिक लम्बाई में लगती है ? (RPSC 2010)
Ans:- मध्यप्रदेश
#. Rajasthan का क्षेत्रफल कितना है ?
Ans:- 3,42,239 वर्ग किमी (1,32,139 वर्ग मील)
#. Rajasthan की भौगोलिक स्थिति ?
Ans:- 23°30 एवं 30°12 उत्तरी अक्षांस 69°30 एवं 78°17 पूर्वी देशान्तर के मध्य
#. Rajasthan की लम्बाई कितनी है ?
Ans:- पूर्व से पश्चिम 869 किमी एवं उत्तर से दक्षिण 826 किमी
#. Rajasthan का क्षेत्रफल भारत के क्षेत्रफल का कितना प्रतिशत है ? (RPSC 2nd Gr. 2010, 11, B.ed 05)
Ans:- 10 .41 % (प्रथम स्थान)
#. Rajasthan की सीमा सबसे कम किस राज्य से लगती है ?
Ans:- पंजाब
#. Rajasthan का वह जिला जिसकी सीमा सर्वाधिक जिलों से लगती है ?
Ans:- पाली (8 जिलो से)
#. कौनसी पर्वत श्रृंखला प्राकृतिक दृष्टि से राज्य को दो भागों में विभाजित करती है।
Ans:- अरावली पर्वत श्रृंखला (सिरोही से अलवर की ओर जाती हुई ४८० कि.मी. लम्बी )
#. अरावली पर्वत श्रंखला की Rajasthan में कुल लम्बाई कितनी है ?
Ans:- 550 किलोमीटर
#. अरावली पर्वत श्रंखला का सर्वोच्च पर्वत शिखर है ? (RPSC 08)
Ans:- गुरुशिखर (1727 मी.) माउंट आबू (सिरोही )
#. Rajasthan में संभागो और जिलो की संख्या ?
Ans:- 7 संभाग और 33 जिले
#. Rajasthan की सीमा से लगे पडौसी राज्य ?
Ans:- इसके पश्चिम में पाकिस्तान, दक्षिण- पश्चिम में गुजरात, दक्षिण-पूर्व में मध्यप्रदेश, उत्तर में पंजाब, उत्तर- पूर्व में उत्तरप्रदेश और हरियाणा है।
#. Rajasthan के किस जिले में सूर्य किरणों का तिरछापन सर्वाधिक होता है
Ans:- श्रीगंगानगर
#. Rajasthan का क्षेत्रफल इजरायल से कितना गुना है ?
Ans:- 17 गुना बङा है
#. Rajasthan की 1070 किमी लम्बी पाकिस्तान से लगी सीमा रेखा का नाम
Ans:- रेडक्लिफ रेखा
#. Rajasthan की अंतर्राष्ट्रीय सीमा से लगने वाले जिले कौन-कौन से है ? (RPSC 07)
Ans:- 4 जिले (बाडमेर, जैसलमेर, बीकानेर एवं श्रीगंगानगर)
#. कर्क रेखा Rajasthan के किस जिले से छूती हुई गुजरती है
Ans:- डूंगरपुर व बॉसवाङा से होकर
#. Rajasthan में सर्वप्रथम सूर्योदय किस जिले में होता है
Ans:- धौलपुर
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पर्यावरण के लिए बलिदान की याद में भरता है खेजड़ली का मेला-For the sake of sacrifice for the environment, the Khahedali fair-

पर्यावरण संरक्षण के लिए पश्चिमी राजस्थान संपूर्ण विश्व में जाना जाता है। राजस्थानी की प्रसिद्ध कहावत "सर साठे रूंख रहे तो भी सस्तो जाण" (अर्थात सिर कटवा कर वृक्षों की रक्षा हो सके, तो भी इसे सस्ता सौदा ही समझना चाहिए) को जोधपुर जिले का खेजड़ली गाँव के लोगों ने पूरी तरह से चरितार्थ किया था जहाँ संवत् 1787 की भादवा सुदी दशमी को खेजड़ी के पेड़ों की रक्षा के लिए विश्नोई जाति के 363 व्यक्तियों ने अपने प्राणों की आहूति दी थी। वनों के संरक्षण तथा संवर्द्धन के लिए संत जांभोजी के अनुयायी विश्नोई समाज ने सदैव सामाजिक प्रतिबद्धता को उजागर किया है। जांभोजी ने संवत् 1542 की कार्तिक बदी अष्टमी को विश्नोई धर्म का प्रवर्तन किया तथा अपने अनुयायियों को "सबद वाणी" में उपदेश दिया कि वनों की रक्षा करें। उन्होंने अपने अनुयायियों से उनतीस (20+9) नियमों के पालन करने के लिए प्रेरित किया। बीस + नौ नियमों के पालन के उपदेश के कारण ही उनके द्वारा प्रवर्तित संप्रदाय को विश्नोई संप्रदाय कहा गया। इन नियमों में से एक नियम हरे वृक्ष को नहीं काटने का भी था। इस संप्रदाय के सैकड़ों लोगों द्वारा खेजड़ली गाँव में वृक्षों की रक्षा के लिए किए गए बलिदान की शौर्य गाथा अत्यंत रोमांचक होने के साथ साथ आज सभी के लिए प्रेरणास्पद भी बनी हुई है। यह घटना उस समय की है जब जोधपुर के किले के निर्माण में काम आने वाले चूने को निर्मित करने वाले भट्टों के ईंधन के लिए लकड़ियों की आवश्यकता हुई। लकड़ी की पूर्ति करने के लिए खेजड़ली गाँव के खेजड़ी वृक्षों की कटाई करने का निर्णय किया गया। इस बात का पता चलते ही देवता समान माने जाने वाले पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए खेजड़ली गाँव के विश्नोई समाज के लोगों ने बलिदान देने का निश्चय किया। उन्होंने आसपास के गाँवों को भी अपने इस निर्णय की सूचना दे दी। एक महिला अमृता देवी के नेतृत्व में लोग सैकड़ों की संख्या में खेजड़ली गांव में एकत्रित हो गए तथा वृक्षों को बचाने के लिए उनसे चिपक गए। उन्होंने पेड़ कटाई के विरोध में अनूठे सत्याग्रह का एलान कर दिया कि अगर तुम्हे पेड़ काटना है तो पहले हमें काटना होगा। हत्यारे कब रुकनेवाले थे, वे टूट पड़े और जब पेड़ों को काटा जाने लगा, तो लोगों के शरीर भी टुकड़े-टुकड़े होकर गिरने लगे तथा बलिदानी धरती लाशों से पट गई। इस बलिदान में जान देने वालोँ लोगों में खेजड़ली की महान महिला अमृतादेवी और उनकी दो पुत्रियां अग्रिम पंक्ति में थी। पुरूषों में सर्वप्रथम अणदोजी ने बलिदान दिया तथा कुल 363 स्त्री-पुरूषों ने अपने प्राण पर्यावरण को समर्पित कर दिए। जब इस घटना की सूचना जोधपुर के महाराजा को मिली, तो उन्होंने पेड़ों की कटवाई रुकवाई तथा भविष्य में वहाँ पेड़ न काटने के आदेश भी दिए। इन वीरों की स्मृति में यहां खेजड़ली गाँव में हर वर्ष भादवा सुदी दशमी को विशाल मेला भरता है, जिसमें हजारों की संख्या में लोग इकट्ठे होते हैं। इस मेले में देश विदेश के पर्यावरण प्रेमी भी हिस्सा लेते हैं।


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Famous Shaktipeeth Tanotaray Mata Jaisalmer-प्रसिद्ध शक्तिपीठ तनोटराय माता जैसलमेर

भारत पाकिस्तान सीमा पर स्थित माता "तनोटराय" का मन्दिर अत्यंत प्रसिद्ध है। यह मंदिर जैसलमेर जिला मुख्यालय से करीब 120 किलोमीटर दूर एवं भारत पाक अंतर्राष्ट्रीय सीमा से 20 किलोमीटर अंदर की और स्थित है। तनोट माता जैसलमेर के भाटी शासकों की कुलदेवी मानी जाती है। कहा जाता है कि जैसलमेर का तनोट नामक स्थान भाटी राजाओं की राजधानी हुआ करता था। भाटी शासक मातेश्वरी श्री तनोट राय के भक्त थे। यह भी कहा जाता है कि उनके आमंत्रण पर महामाया सातों बहने तणोट पधारी थी , इसी कारण भक्ति भाव से प्रेरित होकर राजा ने इस मन्दिर की स्थापना की थी।
यह माता भारत-पाकिस्तान के मध्य 1965 तथा 1971 के युद्ध के दौरान सीमा क्षेत्र की रक्षा करने वाली तनोट माता के मन्दिर के रूप में प्रसिद्ध है। तनोट माता के प्रति आम भक्तों के साथ-साथ सैनिकों में भी अतीव आस्था है। माता के मन्दिर की देखरेख, सेवा, पूजापाठ, आराधना व अर्चना सीमा सुरक्षा बल के जवान ही करते हैं। तनोट माता के बारे में विख्यात है कि 1971 में हुए भारत पाकिस्तान के युद्ध के दौरान सैकड़ों बम मंदिर परिसर में पाकिस्तान की सेना द्वारा गिराए गए थे किंतु माता की कृपा से एक भी बम फूटा नहीं तथा मंदिर को खरोंच तक नहीं आई और सभी नागरिक भी सुरक्षित रहे। इस पूरी घटना को माता के चमत्कार के रूप में माना जाता है। इस मन्दिर में आने वाला प्रत्येक श्रद्धालु मन्दिर परिसर के पास अपनी मनोकामना के साथ एक रूमाल अवश्य बाँधता है। इस मंदिर में दर्शनार्थ आने वाले हजारों श्रद्धालुओं ने मंदिर परिसर में इतने रूमाल बाँध दिए कि यह मंदिर रूमालों का मन्दिर के नाम से भी विख्यात हो गया है। जब किसी भक्त की मनोकामना पूर्ण हो जाती है तो वह यहाँ पर अपना बाँधा रूमाल खोलने भी जरूर आता है। यहाँ मंदिर परिसर में सन् 1965 एवं 1971 के भारत पाक युद्ध के समय इस क्षेत्र में गिराए गए बिना फटे बमों का संग्रह भी प्रदर्शित किया गया है। इसी प्रकार 1965 व 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय जिन वीर सैनिकों एवं अधिकारियों ने शौर्य एवं पराक्रम के जौहर दिखाए थे, उनकी शौर्यगाथा भी यहाँ प्रदर्शित की गई है। यहां वर्ष भर भक्तों का आना जाना लगा रहता है , लेकिन नवरात्रि के समय यहां विशाल मेला लगता है और भारी भीड़ देखने को मिलती है। तनोट से लगभग पांच किलोमीटर दूर प्रसिद्ध शक्तिपीठ घंटियाली माता का मंदिर भी स्थित है जिसके बारे में भक्तों की मान्यता है कि तनोटमाता का दर्शन लाभ प्राप्त करने के लिए पहले घंटियाली माता के दर्शन करना आवश्यक है।

TANOT MATA TEMPLE
घंटियाली माता मंदिर

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Paliwal symbolizes ancient glory of Brahmins - ruins of Kuldhra and Khahaan villages-पालीवाल ब्राह्मणों के प्राचीन वैभव का प्रतीक- कुलधरा और खाभा गाँवों के खंडहर

जैसलमेर जिला मुख्यालय से लगभग 20 किलोमीटर दूर स्थित पालीवाल ब्राह्मणों द्वारा वर्षों पूर्व परित्यक्त कुलधरा एवं खाभा नामक दो गाँवों के प्राचीन खंडहर स्थित है जो पालीवालों की संस्कृति, उनकी जीवनशैली, वास्तुकला एवं भवन निर्माण कला को अभिव्यक्त करते हुए अद्भुत अवशेष हैं। प्राचीन काल में बसे पालीवालों की सामूहिक सुरक्षा, परस्पर एकता व सामुदायिक जीवन पद्धति को दर्शाने वाले कुलधरा व खाभा गाँवों को पालीवाल ब्राह्मणों ने जैसलमेर रियासत के दीवान सालिम सिंह की ज्यादतियों से बचने तथा अपने आत्म सम्मान की रक्षा के लिए एक ही रात में खाली करके उजाड़ कर दिए। पश्चिमी राजस्थान के पालीवालों की सांस्कृतिक धरोहर के प्रतीक इन खंडहरों के संरक्षण के लिए सरकार द्वारा प्रयास किए गए हैं। कुलधरा में पालीवालों द्वारा निर्मित कतारबद्ध मकानों, गांव के मध्य स्थित कलात्मक मंदिर, कलात्मक भवन एवं कलात्मक छतरियां पालीवाल-वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। जैसलमेर विकास समिति द्वारा पुराने क्षतिग्रस्त भवनों का रखरखाव किया जा रहा है। इनमें पालीवालों की समृद्ध संस्कृति, वास्तुकला, गाँव के इतिहास तथा रेगिस्तान में उत्कृष्ट जल संरक्षण व्यवस्था को देख कर पर्यटक काफी प्रभावित होते हैं। कुलधरा में पर्यटकों के लिए एक कैक्टस पार्क भी स्थापित किया गया है। जैसलमेर के विश्वविख्यात मरुमहोत्सव के दौरान देशी-विदेशी सैलानियों को पालीवालों द्वारा परित्यक्त वैभवशाली रहे गांव कुलधरा को दिखाने के लिए यहाँ एक दिन का कार्यक्रम रखा जाता हैं जिससे वे इन ब्राह्मणों के प्राचीन ग्राम्य स्थापत्य और लोक जीवन के कल्पना लोक में आनंद ले सके तथा किसी जमाने में सर्वाधिक समृद्ध एवं उन्नत सभ्यता के धनी रहे कुलधरा गांव में पालीवालों का लोक जीवन, बसावट, शिल्प-स्थापत्य और वास्तुशास्त्रीय नगर नियोजन जैसी कई विलक्षणताओं की झलक पाकर पुराने युग के परिदृश्यों में साकार रूप में पा सकें। ये सैलानी कुलधरा गांव में खण्डहरों में विचरण करते हुए मन्दिर, मकानों के खण्डहर, गृह सज्जा व गृहप्रबन्धन, जल प्रबन्धन, ग्राम्य विकास आदि सभी पहलुओं को देखते हैं तथा प्राचीन ग्राम्य प्रबन्धन की सराहना करते हैं। इसके अलावा काफी संख्या में सैलानी कुलधरा के समीप खाभा में भी खाभा के किले और पुरातन अवशेषों का अवलोकन करने भी जाते हैं।
भूगर्भ विज्ञान के ज्ञाता थे पालीवाल-
जैसलमेर के रेगिस्तान में पानी के बिना बस्ती बसाना तथा समृद्धि पैदा करना बहुत ही मुश्किल है किंतु पालीवाल ब्राह्मणों ने रेगिस्तान में कृषि और व्यापार से समृद्धि उत्पन्न कर अपनी भूवैज्ञानिक क्षमता से सबको चकित किया। उनकी इस क्षमता पर आज भी मरू वैज्ञानिक अनुसंधान कर रहे हैं। उन्होंने सतह पर प्रवाहित अथवा सतह पर विद्यमान जल का उपयोग नहीं किया अपितु उन्होंने रेत में मौजूद पानी का उपयोग करने की तकनीक का सहारा लिया। वे अपनी भूगर्भ विज्ञान की क्षमता से पता लगा कर ऐसी जगह पर गांव बसाते थे जहां जमीन के अंदर जिप्सम की मोटी परत हो। इस बस्ती के आसपास वे जिप्सम वाली जमीन के ऊपर खडीन की रचना करते थे। जिप्सम की परत वर्षा के जल को ज़मीन के अंदर अवशोषित होने से रोकती है जिससे पानी लंबे समय तक बचा रहता था। इसी पानी से वे खेती किया करते थे। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि वे ऐसी वैसी नहीं बल्कि जबर्दस्त फसल पैदा करते थे जो उनके भरण पोषण के बाद इतनी बचती कि वे इससे व्यापार करने लगे। उनके जल-प्रबंधन की इसी तकनीक ने ही थार के दुरुहरेगिस्तान को मनुष्यों तथा मवेशियों की संख्या के हिसाब से दुनिया का सबसे सघन रेगिस्तान बनाया। अपने अनुभवों के आधार पर उन्होंने ऐसी खडीन नामक ऐसी तकनीक विकसित कर ली थी जिससे वर्षा जल रेत में गुम न होकर एक खास गहराई पर जमा हो जाता था।
अद्भुत है कुलधरा की वास्तुकला-
पालीवाल वास्तुकला में अत्यंत निपुण थे, इसका पता कुलधरा की दिलचस्प वास्तुकला से चलता है। कहा जाता है कि कुलधरा गाँव में दरवाजों पर ताला नहीं लगता था। अगर ताला नहीं लगता था तो चोर का पता कैसे लगाते थे? उन्होंने ऐसी तकनीक से मकान बनाए कि गांव के मुख्य प्रवेश-द्वार तथा गाँव के घरों के बीच बहुत दूरी होने के बावजूद ध्वनि-प्रणाली ऐसी थी कि मुख्य प्रवेश-द्वार से ही क़दमों की आहट गाँव तक पहुंच जाती थी। एक अन्य तकनीक में गांव के सभी मकानों के झरोखे एक दूसरे से आपस में इस प्रकार जुड़े हुए थे कि एक सिरे वाले मकान से दूसरे सिरे वाले मकान तक अपनी बात आसानी से प्रेषित की जा सकती थी। ये मकान भी ऐसे बनाए गए थे कि उनके अंदर पानी के कुंड हैं तथा इनकी ताक तथा सीढ़ियों की वास्तुकला कमाल की है। यह बताया जाता है कि इन घरों में वायु प्रवाह भी पूर्ण वैज्ञानिक ढंग से था। ये मकान इस कोण से बनाए गए थे कि वायु सीधे घर के भीतर होकर गुजरती थी ताकि रेगिस्तान में भी वातानुकूलन रहे।
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राजस्थान सामान्य ज्ञान आभूषण क्विज (भाग-2) ( Rajasthan GK jewelry Quiz)

1. सटका शरीर के किस अंग का आभूषण है?
अ. गला
ब. कमर
स. नाक
द. पैर
उत्तर- ब
2. कंदौरा शरीर के किस अंग पर पहना जाता है?
अ. सिर
ब. कमर
स. उँगली
द. पैर
उत्तर- ब
3. निम्नांकित में से सिर पर पहने जाने वाला आभूषण है-
अ. बोर या बोरला
ब. नथ
स. बिछिया
द. टड्डा
उत्तर- अ
4. रखड़ी आभूषण किस अंग का है?
अ. कमर
ब. सिर
स. हाथ
द. गला
उत्तर- ब
5. निम्नांकित में से पैर में पहने जाने वाले आभूषण हैं-
अ. हंसली, सूरलिया, बाली
ब. करधनी, कड़ा, बंगड़ी
स. टनका, हिरना, पैंजनी
द. मोली, सूरमा, बंगड़ी
उत्तर- स
6. निम्नांकित में से पुरुषों द्वारा पहने जाने वाला आभूषण है-
अ. बोरला
ब. मुरकिया
स. बंगड़ी
द. टड्डा
उत्तर- ब
7. पंचलड़ी, हंसुली, हाली व तिणणिया किस अंग पर पहने जाते हैं-
अ. सिर
ब. गला
स. कमर
द. बाजू
उत्तर- ब
8. राजस्थान का मशहूर लोकगीत गोरबंद किस पशु के गले में पहने जाने वाले आभूषण से संबंधित है?
अ. घोड़ा
ब. बैल
स. ऊँट
द. बकरी
उत्तर- स
9. गले में बाँधी जाने वाली देवी देवताओं की प्रतिमा को कहते हैं-
अ. नावा
ब. चौकी
स. उपर्युक्त दोनों
द. इनमें से कोई नहीं
उत्तर- स
10. टड्डा किस अंग का आभूषण है?
अ. कान
ब. नाक
स. बाजू
द. पैर
उत्तर- स
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Jewelery in the life style of women in Rajasthan-राजस्थान में महिलाओं की जीवन-शैली में आभूषण

राजस्थान में महिलाओं की जीवन-शैली में आभूषण एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते है। यूं तो राजस्थानी आभूषण महिलाओं की प्रतिदिन की साज-सज्जा का अंग है, किन्तु ये उनकी वर्तमान स्थिति (वैवाहिक स्थिति) को भी अभिव्यक्त करती है। राजस्थान में महिलाओं के सर से पाँव तक पारंपरिक आभूषण से सजने में उनकी वैवाहिक स्थिति का कड़ाई से पालन किया जाता है। राजस्थान की महिलाएं सिर ले कर पाँव तक स्वयं को सज्जित करती है। राजस्थान में ललाट के आभूषणों की एक दीर्घ परंपरा है।
इनमें से एक आभूषण बोर है। बोर को स्त्रियाँ अपनी ललाट के ठीक मध्य में पहनती है, या सर-माँग के रूप में केवल बालों के विभाजन के स्थान में पहना जाता है, अथवा यह एक माथा-पट्टी की तरह एक सिर-बंधन (हेड-बैंड) के रूप में हो सकता है। बोर या रखड़ी जिसे घुंडी या बोरला भी कहा जाता है, केश-रेखा पर ललाट के मध्य स्थल पर भूषित किया जाता है। इसे सोने या चांदी का बनाया जाता है तथा इसकी आकृति सामान्यतः गोलाकार होती है यद्यपि यह कभी-कभी समतल-शीर्ष आकार का भी रखा जाता है। इसकी सतह पर विभिन्न प्रकार की डिजाइन को आमतौर पर ग्रैन्युलेशन (दाने बनाने की प्रक्रिया) के माध्यम से बनाई जाती है। इसके पार्श्व में तथा पीछे अन्य आभूषणों को जोड़े जाने का प्रावधान भी रखा जाता है। बोर को कभी कभी लाख और स्वर्ण धातु के संयोजन से बनाया जाता है। इसके गोले के सामने एक छोटी नली जोड़ी जाती है। आमतौर पर इस आभूषण के घुमावदार फलक पर रंगीन मोती पिरोए जाते हैं। बोर के नीचे अर्ध वृत्ताकार ढांचा बनाती हुई एक चैन पहनी जाती है जो 'तिड़ीबलका' या 'तिड़ीभलका' कहलाती है। बोर विवाह का आवश्यक प्रतीक माना जाता है तथा इसे शादी की रस्में पूरी हो जाने के पश्चात् ही धारण किया जाता है।इसे वधू को दूल्हे के परिवार की ओर से भेंट किया जाता है तथा विवाहित स्त्री द्वारा इसे प्रतिदिन पहना जाता है। बोर कहा जाने वाला आभूषण सामुदायिक विभिन्नताएं परिलक्षित करता है। राजपूत , माहेश्वरी और ओसवाल जातियों में यह आभूषण सोने से बना पाया जाता है,जबकि दूसरों के लिए यह चांदी से बना होता है। मेघवाल जाति की महिलाएं मोतियों से बना बोर या कभी-कभी चांदी का एक छोटा सा ग्लोब जैसा बोर पहनती हैं। भील महिलाएं भी चांदी का बोर पहनती हैं,जिस पर सामान्यतया एक 'झाबिया' या चैन जुडी होती है और इसे अपनी जगह पर स्थिर रखने के लिए एक मोटी सूती रस्सी द्वारा सिर के पीछे के बालों से बांधा जाता है। कुछ बोर में धातु की चैन होती है जिसे 'डोरा' कहा जाता है, जो कान के पीछे घूमती हुई दोनों तरफ जुडी होती है और सिर के पीछे मजबूती से बंधी होती है।
रखड़ी जिसे घुंडी भी कहा जाता है, एक गोल एवं भारी आभूषण है। केश-रेखा पर ललाट के मध्य स्थल पर भूषित किया जाता है। इसे सोने या चांदी का बनाया जाता है। झेला कई चैनों की श्रृंखला है जो बोर के भार को संबल प्रदान करती है। साधारणतया सिर पर दो झेला पहने जाते है जो प्रत्येक कान के रिंग (ईयर-रिंग) की केन्द्रीय रॉड से गुजरते हैं तथा बोर को ललाट के केंद्र पर रखते हैं। यह आभूषण का ढांचा ललाट पर बालों को घेरे रहता है।बोर को वर्णित करने के लिए अन्य नाम सांकली, दामिनी, तथा मोरो है।
पान को डोरा के पीछे पहना जाता है जो माथे पर सीधा लेटा रहता है। इसका 'पान' नाम इसकी पान जैसी आकृति के आधार पर है। पान दिल के आकार के छोटे कट-आउट में बनाया जाता है तथा चैनों से लिपटा हुआ रहता है।
माथापट्टी एक प्रकार का हेड-बैंड होता है जो सामान्यतः सोने की बनाई जाती है। ये लोकप्रिय आभूषण है जिसे क्षेत्र के सभी समुदायों की महिलाओं द्वारा पहना जाता है। यह एक कान से प्रारंभ हो कर दूसरे कान पर समाप्त होती है तथा केश-रेखा (hairline ) पर स्थिर रहती है। इससे एक टीका या सिर-माँग जुड़ा हो सकता है तथा इसे विस्तृत शीर्ष आभूषण बनाता है। साधारणतया 'कर्ण-फूल' कहे जाने वाले ईअर-रिंग्स इसके दोनों ओर जुड़े रहते हैं। माथा-पट्टी, कर्णफूल तथा टीके का यह संयोजन "फूल-झीमका-बिन्द-सुड़ा" कहलाता है।
सेलड़ी एक लोकप्रिय केश-आभूषण है तथा यह वेणी या चोटी के अंत में पहना जाता है। सोने या चांदी से बना 5-10 से.मी. लंबा यह आभूषण शंक्वाकार होता है तथा इसके आधार में छोटी घंटियाँ लटकी रहती है।
शीशफूल का शाब्दिक अर्थ सिर का पुष्प है।सामान्यतः यह आभूषण सोने का बनाया जाता है तथा इससे फूल वाले तीन समतल लटकन (पेंडेंट) जुड़ेहोते हैं, जिसमें एक छोटा लटकन (पेंडेंट) मध्य में होता है। इस आभूषण पर बारीक कलात्मक कार्य किया जाता है। यह आभूषण पान के बाद पहना जाता है तथा यह इसके समान्तर रहता है। सिर-माँग को अपने नाम के अनुरूप सिर के बालों के विभाजन स्थल या माँग में सजाया जाता है। इस आभूषण की संरचना में मोती एवं मूल्यवान पत्थर के साथ जुड़ी चैन होती है।
टीका सिर व ललाट की सीमा रेखा पर लटका कर पहना जाने वाला आभूषण है। ये एक वृत्ताकार या दिल के आकार का आभूषण है, जिसके पीछे एक चैन जुडी होती है। यह चैन टीके को पीछे की तरफ बालों में बंधी रहती है। टीके को
तोडला भी कहा जाता है।
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मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

Historical chhatries of Rajasthanराजस्‍थान की ऐतिहासिक छतरियाँ

राजस्‍थान की ऐतिहासिक छतरियाँ
1. अमरसिंह की छतरी - नागौर
2. सिसोदिया राणाओं की छतरियाँ - आहड़ , उदयपुर
3. राव बीका जी रायसिंह की छतरियाँ - देव कुंड , बीकानेर
4. हाड़ा राजाओं की छतरियाँ - सार बाग , कोटा
5. रैदास की छतरी - चित्तौड़गढ़
6. गोपालसिंह की छतरी - करौली 
7. 84 खंभों की छतरी - बूँदी
8. राजा बख्तावर सिंह की छतरी - अलवर
9. 32 खंभों की छतरी - रणथम्भौर
10. केसर बाग व क्षार बाग की छतरियाँ - बूँदी ( बूँदी राजवंश की )
11. भाटी राजाओं की छतरियाँ - बड़ा बाग , जैसलमेर
12. राठौड़ राजाओं की छतरियाँ - मंडोर जोधपुर
13. मूसी महारानी की छतरी - अलवर
14. महाराणा प्रताप की छतरी ( 8 खंभोकी )- बाडोली ( उदयपुर )
15. कच्छवाहा राजाओं की छतरियाँ - गेटोर ( नाहरगढ़ , जयपुर )
16. राव जोधसिंह की छतरी - बदनौर
17. जयमल ( जैमल ) व कल्ला राठौड़ की छतरियाँ - चित्तौड़गढ़

बड़ा बाग़ जैसलमेर


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राजस्थानी लोक गीत घूमर एवं चम चम चमके चुन्दडी- Rajasthani folk songs Ghumar and Chamchat Chakte Chundadi

राजस्थानी लोक गीत घूमर एवं चम चम चमके चुन्दडी-

घूमर गीत

ओ म्हारी घूमर छे नखराळी ऐ माँ
घुमर रमवा म्हें जास्याँ
ओ राजरी घुमर रमवा म्हें जास्याँ
ओ म्हाने रमता ने काजळ टिकी लादयो ऐ माँ
घुमर रमवा म्हें जास्याँ
ओ राजरी घुमर रमवा म्हें जास्याँ
ओ म्हाने रमता ने लाडूङो लादयो ऐ माँ
घुमर रमवा म्हें जास्याँ .
ओ राजरी घुमर रमवा म्हें जास्याँ .
ओ म्हाने परदेशियाँ मत दीजो रे माँ
घुमर रमवा म्हें जास्याँ
ओ राजरी घुमर रमवा म्हें जास्याँ
ओ म्हाने राठोडा रे घर भल दीजो ऐ माँ
घुमर रमवा म्हें जास्याँ
ओ राजरी घुमर रमवा म्हें जास्यां
ओ म्हाने राठोडा री बोली प्यारी लागे ऐ माँ
घुमर रमवा म्हें जास्याँ
ओ राजरी घुमर रमवा म्हें जास्यां
ओ म्हारी घुमर छे नखराळी ऐ माँ
घुमर रमवा म्हें जास्याँ ..


चम चम चमके चुन्दडी गीत

चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे
चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे
चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे
म्हारी तो रंग दे चुन्दडी बिण्जारा रे
म्हारे साहेबा रो , म्हारे पिवजी रो , म्हारा साहेबा रो रंगदे रूमाल रे बिण्जारा रे
म्हारा साहेबा रो रंगदे रूमाल रे बिण्जारा रे
चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे
जोधाणा सरीखा पैर मैं बिण्जारा रे
कोई सोनो तो घड़े रे सुनार रे बिण्जारा रे
कोई सोनो तो घड़े रे सुनार रे बिण्जारा रे
चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे
पायल घड़ दे बाजणी बिण्जारा रे
म्हारी नथली पळ्कादार रे बिण्जारा रे
म्हारी नथली पळ्कादार रे बिण्जारा रे
चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे

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राजस्थानी संगीत गोरबंद

गोरबंद
लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
ओ लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो

ऐ ऐ ऐ गायाँ चरावती गोरबन्द गुंथियों
तो भेंसयाने चरावती मैं पोयो पोयो राज मैं तो पोयो पोयो राज
म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
ओ लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो

ऐ ऐ ऐ ऐ खारासमद सूं कोडा मंगाया
तो बिकाणे तो गड़ बिकाणे जाए पोया पोया राज मैं तो पोया पोया राज
म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
ओ लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो

ऐ ऐ ऐ ऐ देराणी जिठणी मिल गोरबन्द गुंथियों
तो नडदल साचा मोती पोया पोया राज मैं तो पोया पोया राज
म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
ओ लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नाखारालो

ऐ ऐ ऐ ऐ कांच री किवाडी माथे गोरबन्द टांकयो
तो देखता को हिवडो हरखे ओ राज हिवडो हरखे ओ राज
म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
ओ लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नाखारालो

ऐ ऐ ऐ ऐ डूंगर चढ़ ने गोरबन्द गायो
तो झोधाणा तो झोधाणा क केडी हैलो सांभळो जी राज हैलो सांभळो जी राज
म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
ओ लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नाखारालो

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परीक्षा मार्गदर्शन प्रश्नोत्तरी(भाग -1)

परीक्षा मार्गदर्शन प्रश्नोत्तरी-
1. राजस्थान का जिब्राल्टर दुर्ग किसे कहा जाता है?
(अ) लोहागढ़ को
(ब) तारागढ़ (अजयमेरु)को
(स) तिमनगढ़ को
(द) चित्तौड़गढ़ को
उत्तर- ब
2. बछबारस त्यौहार किस दिन मनाया जाता है?
(अ) चैत्र कृष्णा एकादशी को
(ब) भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को
(स) भाद्रपद कृष्णा द्वादशी को
(द) आश्विन कृष्णा द्वादशी को
उत्तर- स
3. किस दुर्ग के बारे में अबुलफजलने कहा था- "यह दुर्ग पहाडियों के बीच है, इसीलिए कहते हैं कि बाकि दुर्ग तो नंगे है किन्तु यह बख्तरबंद किला है?
(अ) लोहागढ़
(ब) तारागढ़ (अजयमेरु)
(स) रणथम्भौर
(द) चित्तौड़गढ़
उत्तर- स
4. बाबू महाराज का मेला कहाँ भरता है?
(अ) अलवर
(ब) धौलपुर
(स) अजमेर
(द) चित्तौड़गढ़
उत्तर- ब
5. पिंजारा क्या है?
(अ) पालकी उठाने वाली जाति
(ब) एक वाद्य यंत्र
(स) विवाह की एक रस्म
(द) रुईधुनने वाली एक जाति
उत्तर- द
6. प्रसिद्ध व्यक्तित्व अतुल कनक है?
(अ) न्यायविद
(ब) राजस्थानी साहित्यकार
(स) लोक नर्तक
(द) लोक गायक
उत्तर- ब
7. प्रसिद्ध व्यक्तित्व अल्लाहजिलाई बाई सम्बंधित है?
(अ) ब्लू पॉटरी से
(ब) राजस्थानी साहित्य से
(स) लोक नृत्य से
(द) लोक गायन से
उत्तर- द
8. राजस्थान की प्रथम विधानसभा के अध्यक्ष कौन थे?
(अ) श्री लाल सिंह शक्तावत
(ब) श्री गिरिराज प्रसाद तिवाड़ी
(स) श्री नरोत्तम लाल जोशी
(द) श्री रामनारायण चौधरी
उत्तर- स
9. धावा डोली अभयारण किसके संरक्षण के लिए प्रसिद्ध है?
(अ) उड़न गिलहरी के
(ब) कृष्ण मृग के
(स) गोडावण के
(द) चिंकारा के
उत्तर- ब
10. बुड्डा जोहड़ का मेला प्रतिवर्ष किस जिले मेंभरता है?
(अ) अलवर में
(ब) धौलपुर में
(स) अजमेर में
(द) श्रीगंगानगर में
उत्तर- द
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राजस्थान के रिति रिवाज एवं प्रथाए (भाग-1)

आठवाँ पूजन
स्त्री के गर्भवती होने के सात माह पूरे कर लेती है तब इष्ट देव का पूजन किया जाता है और प्रीतिभोज किया जाता है। पनघट पूजन या जलमा पूजन बच्चे के जन्म के कुछ दिनों पश्चात (सवा माह बाद) पनघट पूजन या कुआँ पूजन की रस्म की जाती है इसे जलमा पूजन भी कहते हैं।
आख्या
बालक के जन्म के आठवें दिन बहने जच्चा को आख्या करती है और एक मांगलिक चिह्न 'साथिया' भेंट करती है।
जड़ूला उतारना
जब बालक दो या तीन वर्ष का हो जाता है तो उसके बाल उतराए जाते हैं। वस्तुतः मुंडन संस्कार को ही जडूला कहते हैं।
सगाई
वधू पक्ष की ओर से संबंध तय होने पर सामर्थ्य अनुसार शगुन के रुपयेतथा नारियल दिया जाता है।
बिनौरा
सगे संबंधी व गाँव के अन्य लोग अपने घरों में वर या वधू तथा उसके परिवार को बुला कर भोजन कराते हैं जिसे बिनौरा कहते हैं।
तोरण
तोरण
यह जब बारात लेकर कन्या के घर पहुँचता है तो घोड़ी पर बैठे हुए ही घर के दरवाजे पर बँधे हुए तोरण को तलवार से छूता है जिसे तोरण मारना कहते हैं। तोरण एक प्रकार का मांगलिक चिह्न है।
खेतपाल पूजन
राजस्थान में विवाह का कार्यक्रम आठ दस दिनों पूर्व ही प्रारंभ हो जाते हैं। विवाह से पूर्व गणपति स्थापना से पूर्व के रविवार को खेतपाल बावजी (क्षेत्रपाल लोकदेवता) की पूजा की जाती है।
कांकन डोरडा
विवाह से पूर्व गणपति स्थापना के समय तेल पूजन कर वर या वधू के दाएँ हाथ में मौली या लच्छा को बंट कर बनाया गया एक डोरा बाँधते हैं जिसे कांकन डोरडा कहते हैं। विवाह के बाद वर के घर में वर-वधू एक दूसरे के कांकन डोरडा खोलते हैं।
बान बैठना व पीठी करना
लग्नपत्र पहुँचने के बाद गणेश पूजन (कांकन डोरडा) पश्चात विवाह से पूर्व तक प्रतिदिन वर व वधू को अपने अपने घर में चौकी पर बैठा कर गेहूँ का आटा, बेसन में हल्दी व तेल मिला कर बने उबटन (पीठी) से बदन को मला जाता है, जिसको पीठी करना कहते हैं। इस समय सुहागन स्त्रियाँ मांगलिक गीत गाती है। इस रस्म को 'बान बैठना' कहते हैं।
बिन्दोली
विवाह से पूर्व के दिनों में वर व वधू को सजा धजा और घोड़ी पर बैठा कर गाँव में घुमाया जाता है जिसे बिन्दोली निकालना कहते हैं।
मोड़ बाँधना
विवाह के दिन सुहागिन स्त्रियाँ वर को नहला धुला कर सुसज्जित कर कुलदेवता के समक्ष चौकी पर बैठा कर उसकी पाग पर मोड़ (एक मुकुट) बांधती है।
बरी पड़ला
विवाह के समय बारात के साथ वर के घर से वधू को साड़ियाँ व अन्य कपड़े, आभूषण, मेवा, मिष्ठान आदि की भेंट वधू के घर पर जाकर दी जाती है जिसे पड़ला कहते हैं। इस भेंट किए गए कपड़ों को 'पड़ले का वेश' कहते हैं। फेरों के समय इन्हें पहना जाता है।
मारत
विवाह से एक दिन पूर्व घर में रतजगा होता है, देवी-देवताओं की पूजा होती है और मांगलिक गीत गाए जाते हैं। इस दिन परिजनों को भोजन भी करवाया जाता है। इसे मारत कहते हैं।
पहरावणी या रंगबरी
विवाह के पश्चात दूसरे दिन बारात विदा की जाती है। विदाई में वर सहित प्रत्येक बाराती को वधूपक्ष की ओर से पगड़ी बँधाई जाती है तथा यथा शक्ति नगद राशि दी जाती है। इसे पहरावणी कहा जाता है।
सामेला
जब बारात दुल्हन के गांव पहुंचती है तो वर पक्ष की ओर से नाई या ब्राह्मण आगे जाकर कन्यापक्ष को बारात के आने की सूचना देता है। कन्या पक्ष की ओर उसे नारियल एवं दक्षिणा दी जाती है। फिर वधू का पिता अपने सगे संबंधियों के साथ बारात का स्वागत करता है, स्वागत की यह क्रिया सामेला कहलाती है।
बढार
विवाह के अवसर पर दूसरे दिन दिया जाने वाला सामूहिक प्रीतिभोज बढार कहलाता है।
कुँवर कलेवा
सामेला के समय वधू पक्ष की ओर से वर व बारात के अल्पाहार के लिए सामग्री दी जाती है जिसे कुँवर कलेवा कहते हैं।
बींद गोठ
विवाह के दूसरे दिन संपूर्ण बारात के लोग वधू के घर से कुछ दूर कुएँ या तालाब पर जाकर स्थान इत्यादि करने के पश्चात अल्पाहार करते हैं जिसमें वर पक्ष की ओर से दिए गए कुँवर-कलेवे की सामग्री का प्रयोग करते है। इसे बींद गोठ कहते हैं।
मायरा
राजस्थान में मायरा भरना विवाह के समय की एक रस्म है। इसमें बहन अपनी पुत्री या पुत्र का विवाह करती है तो उसका भाई अपनी बहन को मायरा ओढ़ाता है जिसमें वह उसे कपड़े, आभूषण आदि बहुत सारी भेंट देता है एवं उसे गले लगाकर प्रेम स्वरुप चुनड़ी ओढ़ाता है। साथ ही उसके बहनोई एवं उसके अन्य परिजनों को भी कपड़े भेंट करता है।
डावरिया प्रथा
यह रिवाज अब समाप्त हो चुका है। इसमें राजा-महाराजा और जागीरदार अपनी पुत्री के विवाह में दहेज के साथ कुँवारी कन्याएं भी देते थे जो उम्र भर उसकी सेवा में रहती थी। इन्हें डावरिया कहा जाता था।
नाता प्रथा
कुछ जातियों में पत्नी अपने पति को छोड़ कर किसी अन्य पुरुषके साथ रह सकती है। इसे नाता करना कहते हैं। इसमें कोई औपचारिक रीति रिवाज नहीं करना पड़ता है। केवल आपसी सहमति ही होती है। विधवा औरतें भी नाता कर सकती है।
नांगल
नवनिर्मित गृहप्रवेश की रस्म को नांगल कहते हैं।
मौसर
किसी वृद्ध की मृत्यु होने पर परिजनों द्वारा उसकी आत्मा की शांति के लिए दिया जाने वाला मृत्युभोज मौसर कहलाता है।
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Description of the chief public dance of Rajasthan-राजस्थान के प्रमुख लोक नृत्यो का वर्णन

राजस्थान एक भौगोलिक एवं सांस्कृतिक विविधतायुक्त प्रदेश है । इसी विविधता ने इस प्रदेश के लोक नृत्यों को भी विविधता प्रदान की है और अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नृत्य विकसित हुए । ये प्रमुख लोकनृत्य इस प्रकार हैं-

1. घूमर नृत्य -

यह पूरे राज्य में लोकप्रिय है तथा मांगलिक अवसरों व त्योहारों पर महिलाओं द्वारा किया जाता है। इसमें लहँगा पहने स्त्रियाँ गोल घेरे में लोकगीत गाती हुई नृत्य करती है । जब ये महिलाएँ विशिष्ट शैली में नाचती है तो उनके लहँगे का घेर एवं हाथों का संचालन अत्यंत आकर्षक होता है। लहंगे के घेर को कुंभ कहते है।

2. गैर नृत्य -

यह होली के दिनों में मेवाड़ एवं बाड़मेर में खेला जाता है। यह पुरुषों का नृत्य है । गोल घेरे में इसकी संरचना होने के कारण ही इसे 'गैर' कहा जाता है । इसमें पुरुषों की टोली हाथों में लंबी डंडियां ले कर ढोल व थाली-माँदल वाद्य की ताल पर वृत्ताकार घेरे में नृत्य करते हुए मंडल बनाते हैं । इस नृत्य में तेजी से पद संचालन और डंडियोँ की टकराहट से तलवारबाजी या पट्टयुद्ध का आभास होता है। मेवाड़ एवं बाड़मेर में गैर की मूल रचना समान है किंतु नृत्य की लय, ताल और मंडल में अंतर होता है।

3. अद्भुत कालबेलिया नृत्य-

"कालबेलिया" राजस्थान की एक अत्यंत प्रसिद्ध नृत्य शैली है। कालबेलिया सपेरा जाति को कहते हैं । अतः कालबेलिया सपेरा जाति का नृत्य है। इसमें गजब का लोच और गति होती है जो दर्शक को सम्मोहित कर देती है । यह नृत्य दो महिलाओं द्वारा किया जाता है। पुरुषनृत्य के दौरान बीन व ताल वाद्य बजाते हैं। इस नृत्य में कांच के टुकड़ों व जरी-गोटे से तैयार काले रंग की कुर्ती, लहंगा व चुनड़ी पहनकर सांप की तरह बल खाते हुए नृत्य की प्रस्तुति की जाती है। इस नृत्य के दौरान नृत्यांगनाओं द्वारा आंखों की पलक से अंगूठी उठाने, मुंह से पैसे उठाना, उल्टी चकरी खाना आदि कलाबाजियां दिखाई जाती है। केन्या की राजधानी नैरोबी में नवंबर, 2010 में हुई अंतरसरकारी समिति की बैठक में यूनेस्को ने कालबेलिया नृत्य को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की प्रतिनिधि सूची में भी शामिल किया है। इस नृत्य को विशेष पहचान नृत्यांगना 'गुलाबो' ने दिलाई, जिन्होंने देश में ही नहीं विदेशों में भी अपनी कलाकारी दिखाई।

4. शेखावटी का गींदड़ नृत्य-

शेखावटी का लोकप्रिय नृत्य है । यह विशेष तौर पर होली के अवसर पर किया जाता है। चुरु, झुंझुनूं , सीकर जिलों में इस नृत्य के सामूहिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं । नगाड़ा इस नृत्य का प्रमुख वाद्य है । नर्तक नगाड़े की ताल पर हाथों में डंडे ले कर उन्हें टकराते हुए नाचते हैं । नगाडे की गति बढ़ने के साथ यह नृत्य भी गति पकड़ता है । इस नृत्य में साधु, सेठ-सेठानी, दुल्हा-दुल्हन, शिकारी आदि विभिन्न प्रकार के स्वांग भी निकाले जाते हैं ।

5. मारवाड का डांडिया नृत्य-

मारवाड के इस लोकप्रिय नृत्य में भी गैर व गींदड़ नृत्यों की तरह डंडों को आपस में टकराते हुए नर्तन होता है तथा यह भी होली के अवसर पर पुरुषों द्वारा किया जाता है किन्तु पद संचालन, ताल-लय,गीतों और वेशभूषा की दृष्टि से ये पूर्णतया भिन्न हैं। इस नृत्य के समय नगाडा और शहनाई बजाई जाती है ।

6. कामड़ जाति का विशिष्ट तेरहताली नृत्य-

तेरहताली 
यह एक ऐसा नृत्य है जो बैठ कर किया जाता है । इस अत्यंत आकर्षक नृत्य में महिलाएँ अपने हाथ, पैरों व शरीर के 13 स्थानों पर मंजीरें बाँध लेती है तथा दोनों हाथों में बँधे मंजीरों को गीत की ताल व लय के साथ तेज गति से शरीर पर बँधे अन्य मंजीरो पर प्रहार करती हुई विभिन्न भाव-भंगिमाएं प्रदर्शित करती है। इस नृत्य के समय पुरुष तंदूरे की तान पर रामदेव जी के भजन गाते हैं ।

7. उदयपुर का भवई नृत्य-

चमत्कारिकता एवं करतब के लिए प्रसिद्ध यह नृत्य उदयपुर संभाग में अधिक प्रचलित है। नाचते हुए सिर पर एक के बाद एक, सात-आठ मटके रख कर थाली के किनारों पर नाचना, गिलासों पर नृत्य करना, नाचते हुए जमीन से मुँह से रुमाल उठाना, नुकीली कीलों पर नाचना आदि करतब इसमें दिखाए जाते हैं।

8. जसनाथी संप्रदाय का अग्नि नृत्य-

यह नृत्य जसनाथी संप्रदाय के लोगों द्वारा रात्रिकाल में धधकते अंगारों पर किया जाता है। नाचते हुए नर्तक कई बार अंगारों के ऊपर से गुजर जाता है। नाचते हुए ही वह अंगारों को हाथ में उठाता है तथा मुँह में भी डाल लेता है। यह नृत्य पुरुषों द्वारा ही किया जाता है।

9. जालोर का ढोल नृत्य-

जालोर के इस प्रसिद्ध नृत्य में 4 या 5 ढोल एक साथ बजाए जाते हैं । सबसे पहले समूह का मुखिया ढोल बजाता है। तब अलग अलग नर्तकों में से कोई हाथ में डंडे ले कर, कोई मुँह में तलवार ले कर तो कोई रूमाल लटका कर नृत्य करता है । यह नृत्य अक्सर विवाह के अवसर पर किया जाता है ।

10. चरी नृत्य-

राजस्थान के गाँवों में पानी की कमी होने के कारण महिलाओं को कई किलोमीटर तक सिर पर घड़ा (चरी) उठाए पानी भरने जाना पड़ता है । इस नृत्य में पानी भरने जाते समय के आल्हाद और घड़ोँ के सिर पर संतुलन बनाने की अभिव्यक्ति है। इस नृत्य में महिलाएँ सिर पर पीतल की चरी रख कर संतुलन बनाते हुए पैरों से थिरकते हुए हाथों से विभिन्न नृत्य मुद्राओं को प्रदर्शित करती है। नृत्य को अधिक आकर्षक बनाने के लिए घडे के ऊपर कपास से ज्वाला भी प्रदर्शित की जाती है ।

11. कठपुतली नृत्य-

इसमें विभिन्न महान लोक नायकों यथा महाराणा प्रताप, रामदेवजी, गोगाजी आदि की कथा अथवा अन्य विषय वस्तु को कठपुतलियों के माध्यम से प्रदर्शित किया जाता है। यह राजस्थान की अत्यंत लोकप्रिय लोककला है। यह उदयपुर में अधिक प्रचलित है।

12. गरासिया जनजाति का वालर नृत्य-

वालर गरासिया जनजाति का एक महत्वपूर्ण नृत्य है । यह घूमर नृत्य का एक प्रतिरूप है । इसमें माँदल, चंग व अन्य वाद्य यंत्रों की थाप पर नर्तक अपने कौशल का प्रदर्शन करते हुए थिरकते हैं।

13. चंग नृत्य -

पुरुषों के इस नृत्य में प्रत्येक पुरुषके हाथ में एक चंग होता है और वह चंग बजाता हुआ वृत्ताकार घेरे में नृत्य करता है। इस दौरान एक वादक बाँसुरी भी बजाता रहता और सभी होली के गीत व धमाल गाते हैं।

14. कच्छी घोड़ी नृत्य-

कच्छी घोड़ी नृत्य में ढाल और लम्बी तलवारों से लैस नर्तकों का ऊपरी भाग दूल्हे की पारम्परिक वेशभूषा में रहता है और निचले भाग में बाँस के ढाँचे पर कागज़ की लुगदी से बने घोड़े का ढाँचा होता है। यह ऐसा आभास देता है जैसे नर्तक घोड़े पर बैठा है। नर्तक, शादियों और उत्सवों पर नाचता है। इस नृत्य में एक या दो महिलाएँ भी इस घुड़सवार के साथ नृत्य करती है। कभी कभी दो नर्तक बर्छेबाज़ी के मुक़ाबले का प्रदर्शन भी करते हैं।

15. पनिहारी नृत्य-

पनिहारी का अर्थ होता है पानी भरने जाने वाली। पनिहारी नृत्य घूमर नृत्य के सदृश्य होता है। इसमें महिलाएँ सिर पर मिट्टी के घड़े रखकर हाथों एवं पैरों के संचालन के साथ नृत्य करती है। यह एक समूह नृत्य है और अक्सर उत्सव या त्योहार पर किया जाता है।

16. बमरसिया या बम नृत्य-

यह अलवर और भरतपुर क्षेत्र का नृत्य है और होली का नृत्य है। इसमें दो व्यक्ति एक नगाड़े को डंडों से बजाते हैं तथा अन्य वादक थाली, चिमटा, मंजीरा,ढोलक व खड़ताल आदि बजाते हैं और नर्तक रंग बिरंगे फूंदों एवं पंखों से बंधी लकड़ी को हाथों में लेकर उसे हवा में उछालते हैं। इस नृत्य के साथ होली के गीत और रसिया गाए जाते हैं । बम या नगाड़े के साथ रसिया गाने से ही इसे बमरसिया कहते हैं।

17. हाड़ौती का चकरी नृत्य-

यह नृत्य हाड़ौती अंचल (कोटा,बारां और बूंदी) की कंजर जाति की बालाओं द्वारा विभिन्न अवसरों विशेषकर विवाह के आयोजन पर किया जाता है। इसमें नर्तकी चक्कर पर चक्कर घूमती हुई नाचती है तो उसके घाघरे का लहराव देखते लायक होता है। लगभग पूरे नृत्य में कंजर बालाएं लट्टू की तरह घूर्णन करती है। इसी कारण इस नृत्य को चकरी नृत्य कहा जाता है। इस नृत्य में ढफ, मंजीरा तथा नगाड़े वाद्य का प्रयोग होता है।

18. लूर नृत्य-

मारवाड का यह नृत्य फाल्गुन माह में प्रारंभ हो कर होली दहन तक चलता है। यह महिलाओं का नृत्य है। महिलाएँ घर के कार्य से निवृत हो कर गाँव में नृत्य स्थल पर इकट्ठा होती है एवं उल्लास के साथ एक बड़े घेरे में नाचती हैं।

19. घुड़ला नृत्य-

यह मारवाड का नृत्य है जिसमें छेद वाले मटकी में दीपक रख कर स्त्रियाँ टोली बना कर पनिहारी या घूमर की तरह गोल घेरे में गीत गाती हुई नाचती है। इसमें धीमी चाल रखते हुए घुड़ले को नजाकत के साथ संभाला जाता है। इस नृत्य में ढोल, थाली, बाँसुरी, चंग, ढोलक, नौबत आदि मुख्य हैं। यह नृत्य मुख्यतः होली पर किया जाता है जिसमें चंग प्रमुख वाद्य होता है। इस समय गाया जाने वाला गीत है - "घुड़लो घूमै छः जी घूमै छः , घी घाल म्हारौ घुड़लो ॥"

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राजस्थान विधानसभा के इतिहास में जुडा एक नया अध्याय

राजस्थान विधानसभा के इतिहास में रविवार 22मार्च 2015 को एक नया अध्याय जुड गया ।यह मौका रहा जब विधानसभा का संचालन रविवार को हुआ।संसदीय कार्य मंत्री राजेंद्र राठौङ ने सदन की कार्रवाई शुरू होते ही कहा कि जनप्रतिनिधियों को छुट्टी देकर आपदा प्रभावित किसानो से मिलने का अवसर दिया,यह भी पहला मौका था। रविवार को विधानसभा सत्र के संचालन से फर्क भले न पडे , लेकिन एक संदेश गया कि विधानसभा जनता के हितो को सर्वोपरी मानते हुए सबसे पहले उस  कार्य को करना जरूरी मानती हैं। राठौङ ने कहा कि इससे पहले भी एक वह दिन था जब 14अगस्त1972 को आजादी की रजत जयंती पर एक मिनट के लिए रात 11 बजे विधानसभा आहूत की गई थी।एक अवसर आया 31 मार्च 2010 को यही विधानसभा रात को तीन बजकर चालीस मिनट पर स्थगित हुई थी । उस समय पूरे प्रदेश में अकाल ,पेयजल व बिजली पर चर्चा चली थी।
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रविवार, 12 अप्रैल 2015

Board of Secondary Education Rajasthan-BSER--माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान, अजमेर

Board of Secondary Education Rajasthan-BSER--माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान, अजमेर

इतिहास History-

माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान दिनांक 4 दिसम्बर 1957 को राजस्थान माध्यमिक शिक्षा अधिनियम 1957 के तहत जयपुर में स्थापित किया गया जिसे 1961 में अजमेर स्थानांतरित किया गया। सन् 1973 से यह जयपुर रोड़ स्थित अपनी वर्तमान बहुमंजिला इमारत में कार्यरत है। अपनी स्थापना से अब तक पाँच दशकों से यह देश के सबसे बड़े राज्य राजस्थान के छः हजार से अधिक विद्यालयों के माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक कक्षाओं के लाखों विद्यार्थियों की वार्षिक परीक्षाओं को संपादित करवा रहा है। बोर्ड द्वारा राज्य में एक सुदृढ़ परीक्षा तंत्र बनाने एवं परीक्षा सुधार करने के साथ साथ दूरदर्शिता का परिचय देते हुए माध्यमिक शिक्षा के विकास के लिए कई नवाचार भी किए गए हैं।

माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के प्रमुख कार्य-

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> माध्यमिक, प्रवेशिका, उच्च माध्यमिक तथा उपाध्याय स्तर की परीक्षाओं का आयोजन कर प्रमाण पत्र प्रदान करना। 
> राज्य में कक्षा 9 से 12 के लिए पाठ्यक्रम तथा पाठ्यपुस्तकों का निर्माण व प्रकाशन। 
> बोर्ड शिक्षण पत्रिका का प्रकाशन। 
> शिक्षकों के अकादमिक उन्नयन हेतु कार्यक्रमों का आयोजन।
> प्रतिभावान विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करने हेतु पुरस्कार, पदक एवं छात्रवृत्ति प्रदान करना तथा व्यक्तित्व विकास शिविर का आयोजन। 
> उत्कृष्ट परीक्षा परिणाम देने वाले विद्यालयों को शील्ड।
> विद्यार्थियों की बहुमुखी प्रतिभा को सँवारने और प्रोत्साहित करने के लिए प्रतियोगिताओं का आयोजन।
> विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग तथा माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के संयुक्त तत्वावधान में राज्य स्तरीय विज्ञान प्रतिभा खोज परीक्षा का आयोजन।
> राष्ट्रीय प्रतिभा खोज परीक्षा का आयोजन। 

बोर्ड का संगठन-

राजस्थान माध्यमिक शिक्षा अधिनियम 1957 के तहत बोर्ड की संरचना निम्नांकित है-

> अध्यक्ष -1
> उपाध्यक्ष सहित पदेन सदस्य - 7
> निर्वाचित सदस्य  - 7
> राज्य सरकार द्वारा मनोनीत सदस्य - 17
> विधानसभा अध्यक्ष द्वारा मनोनीत सदस्य -2
> सहवरण सदस्य s -2
*. बोर्ड अध्यक्ष की नियुक्ति राजस्थान सरकार द्वारा की जाती है। 
*. आयुक्त/निदेशक, माध्यमिक शिक्षा इसके उपाध्यक्ष तथा पदेन सदस्य होते हैं। 
*. बोर्ड का कार्यकाल तीन वर्ष होता है।
*. बोर्ड के सचिव की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है। 
*. बोर्ड का समस्त कार्य बोर्ड के नियमों के अनुसार इसके कर्मचारियों तथा अधिकारियों द्वारा संपादित किया जाता है।

सम्पर्क सूत्र Contact-

परीक्षा परिणाम और अन्य विस्तृत जानकारी के लिए बोर्ड की वेबसाइट निम्न प्रकार से है-

http://rajeduboard.nic.in/



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तीर्थों का भांजा धौलपुर का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल मचकुण्ड

मचकुंड
धार्मिक स्थल मचकुण्ड अत्यंत ही सुन्दर व रमणीक धार्मिक स्थल है जो प्रकृति की गोद में राजस्थान के धौलपुर नगर के निकट स्थित है। यहां एक पर्वत है जिसे गन्धमादन पर्वत कहा जाता है। इसी पर्वत पर मुचुकुन्द नाम की एक गुफा है। इस गुफा के बाहर एक बड़ा कुण्ड है जो मचकुण्ड के नाम से प्रसिद्ध है। इस विशाल एवं गहरे जलकुण्ड के चारों ओर अनेक छोटे-छोटे मंदिर तथा पूजागृह पाल राजाओं के काल (775 ई. से 915 ई. तक) के बने हुए है। यहां प्रतिवर्ष ऋषि पंचमी तथा भादों की देवछट को बहुत बड़ा मेला लगता है, जिसमें हजारों की संख्या में दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। मचकुण्ड को सभी तीर्थों का भान्जा कहा जाता है। मचकुण्ड का उद्गम सूर्यवंशीय 24 वें "राजा मुचुकुन्द" द्वारा बताया जाता है। यहां ऐसी धारणा है कि इस कुण्ड में नहाने से पवित्र हो जाते हैं। यह भी माना जाता है कि मस्सों की बीमारी से त्रस्त व अन्य चर्म रोगों से परेशान लोग इस कुण्ड में स्नान करें तो वे इनसे छुटकारा पा जाते हैं। इसका वैज्ञानिक पक्ष यह है कि इस कुंड में बरसात के दिनों में जो पानी आकर इकट्ठा होता है उसमें गंधक व चर्म रोगों में उपयोगी अन्य रसायन होते हैं। यहाँ प्रत्येक माह की पूर्णिमा को आरती एवं दीपदान का आयोजन किया जाता है। मचकुंड का नाम सिक्ख धर्म से भी जुड़ा है। सिक्ख के गुरुगोविंद सिंह जी 4 मार्च 1662 को ग्वालियर जाते समय यहाँ ठहरे थे। यहाँ उन्होंने तलवार के एक ही वार से शेर का शिकार किया था। उनकी स्मृति में यहाँ शेर शिकार गुरुद्वारा बना है जिसका वैभव अत्यंत आकर्षक है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने कालयवन को राजा मुचुकुन्द के हाथों इसी स्थान पर मरवाया था। तभी से इसे मुचकुण्ड या मचकुण्ड पुकारा जाता है। पूरी कथा इस प्रकार है-
मचकुंड की कथा-
एक बार देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध हुआ तब राजा मुचुकुन्द की सहायता से देवताओं को विजयश्री प्राप्त हुई। लेकिन उस युद्ध में राजा का सब कुछ नष्ट हो चुका था तब राजा मुचुकुन्द ने देवताओं से अपने लिए गहरी नींद का वरदान मांगा। वरदान में निद्रा पाकर वे गन्धमादन पर्वत की गुफा में जाकर सो गए। मथुरा पर जब कालयवन ने घेरा डाला तब अस्त्रहीन होने की वजह से श्रीकृष्ण वहाँ से भाग निकले, भागते भागते उसी गुफा में जा घुसे जहां राजा मुचुकुन्द सो रहे थे। कालयवन भी उनका पीछा करते हुए उसी गुफा में आया एवं सोए हुए राजा को श्रीकृष्ण समझकर ठोकर मारी तो राजा मुचुकुन्द जाग गए। राजा मुचुकुन्द की दृष्टि कालयवन पर पड़ी जिससे वो भस्म हो गया। तब श्रीकृष्ण ने राजा को दर्शन दिए और उत्तराखण्ड जाकर तपस्या करने को कहा। राजा ने गुफा से बाहर आकर यज्ञ किया और उत्तराखण्ड चले गए। तभी से यह स्थान मचकुण्ड के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
कमल के फूल का बाग-
मचकुंड तीर्थ के निकट ही कमल के फूल का बाग भी स्थित है। चट्टान काट कर बनाए गए कमल के फूल के आकार में बने हुए इस बाग का ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ा महत्व है। प्रथम मुगल बादशाह बाबर की आत्मकथा 'तुजुके बाबरी' (बाबरनामा) में जिस कमल के फूल का वर्णन है वह यही कमल का फूल है। कमल के बाग के परिसर में स्नानागार बने हैं जो मुगलकालीन वास्तुकला के अनूठे साक्ष्य है।

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