सोमवार, 18 दिसंबर 2023

900+ kabir ke dohe (900+ संत कबीर के बेहतरीन दोहे)


 कबीर के दोहे   

दुख में सुमरिन सब करे, सुख मे करे न कोय ।
जो सुख मे सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥1॥
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥2॥
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥3॥
बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार ।
मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥4॥
कबिरा माला मनहि की, और संसारी भीख ।
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥5॥
सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥6॥
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥7॥
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥8॥
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥9॥
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥10॥
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥11॥ 
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥12॥
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥13॥
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥14॥
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥15॥
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥16॥
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥17॥
तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँयन तर होय ।
कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय  ॥18॥   
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥
जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥
आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥
आया था किस काम को, तु सोया चादर तान ।
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥
क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह ।
साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥
गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच ।
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥
दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय ।
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥ 
दान दिए धन ना  घटे , नदी ने घटे नीर ।
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥ 
दस द्वारे का पिंजरा, तामे पंछी का कौन ।
रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥ 
ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥ 
हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट ।
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार ।
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥ 
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥ 
मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय ।
मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥ 
सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप ।
यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥ 
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ ।
मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥ 
बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥ 
अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥
कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय ।
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥ 
पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप ।
पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥
बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार ।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥ 
हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध ।
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥ 
राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस ।
रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥ 
जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच ।
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥ 
तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार ।
सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥ 
सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन ।
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥
समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय ।
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥
हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय ।
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥ 
कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय ।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥
वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल ।
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥ 
कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥ 
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥ 
जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय ।
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥ 
साधु ऐसा चहिए ,जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥ 
लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय ।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥ 
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय ।
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥ 
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥ 
अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥ 
मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार ।
तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥ 63 ॥ 
प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥ 
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥ 
सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥ 
सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल ।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥ 
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥ 
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥ 
जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि ।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥ 
जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश ।
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥ 
नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥ 
आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥ 
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥ 
जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम ।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥
दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी ।
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥ 
बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥ 
जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥ 
फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त ।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥ 
दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद ।
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥ 
दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय ।
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥ 
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय ।
प्रेम गली अति साँकरी, ता मे दो न समाय ॥ 82 ॥ 
छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ 83 ॥ 
जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम ।
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥
कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥ 
ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय ।
नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥ 86 ॥ 
सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय ।
जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥ 87 ॥ 
संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक ।
कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥ 88 ॥
मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष ।
यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ॥ 89 ॥ 
जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश ।
मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास ॥ 90 ॥ 
काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय ॥ 91 ॥ 
सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह ।
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह ॥ 92 ॥ 
बाहर क्या दिखलाए, अनन्तर जपिए राम ।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 93 ॥ 
फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम ॥ 94 ॥ 
तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास ।
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढ़ूँढ़त घास ॥ 95 ॥ 
कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव ॥ 96 ॥ 
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ॥ 97 ॥ 
तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय ।
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय ॥ 98 ॥ 
जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय ।
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय ॥ 99 ॥
कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ॥ 100 ॥
 
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश , ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 101 ॥ 
आस पराई राख्त, खाया घर का खेत ।
औरन को प्त बोधता , मुख में पड़ रेत ॥ 102 ॥ 
सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार ।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के , ऐके धका दरार ॥ 103 ॥ 
सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय ।
सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय ॥ 104 ॥
बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव ।
घी साखी कबीर की , चार वेद का जीव ॥ 105 ॥ 
आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ , जाकी लाई होय ॥ 106 ॥ 
साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय ।
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ॥ 107 ॥ 
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सने ही सांइया , आवा अन्त का यार ॥ 108 ॥ 
कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा , दास बन्दगी होय ॥ 109 ॥ 
ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय ।
सौरन कलश सुरा , भरी, साधु निन्दा सोय ॥ 110 ॥ 
सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार ।
होले-होले सुरत में , कहैं कबीर विचार ॥ 111 ॥ 
सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल ।
कबिरा पीछा क्या रहा , गह पकड़ी जब मूल ॥ 112 ॥ 
जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रूख ।
अनुभव भाव न दरसते , ना दु:ख ना सुख ॥ 113 ॥ 
सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर ।
जैसा बन है आपना , तैसा बन है और ॥ 114 ॥ 
यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो ।
बाप-पूत उरभाय के , संग ना काहो केहो ॥ 115 ॥ 
जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे , जामे कौन विचार ॥ 116 ॥ 
जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो डाल दे , दया करे सब कोय ॥ 117 ॥ 
जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना , मिले ना दूजी बार ॥ 118 ॥ 
कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।
बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 119 ॥ 
लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय ।
जीय रही लूटत जम फिरे , मैँढ़ा लुटे कसाय ॥ 120 ॥ 
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा हो रहे , रहें कबीर विचार ॥ 121 ॥ 
जो तु चाहे मुक्त को, छोड़े दे सब आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे , बस कुछ तेरे पास ॥ 122 ॥ 
साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय ।
चाहे बोले केस रख , चाहे घौंट भुण्डाय ॥ 123 ॥ 
अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान ।
हरि की बातें दुरन्तरा , पूरी ना कहूँ जान ॥ 124 ॥ 
खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह ।
आशा जीवन मरण की , मन में राखें नोह ॥ 125 ॥  
लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत ।
लीख पुरानी पर रहें , शातिर सिंह सपूत ॥ 126 ॥ 
सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह ।
लखा जो चहे अलख को , उन्हीं में लख लेह ॥ 127 ॥ 
भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग ।
भांडा घड़ निज मुख दिया , सोई पूर्ण जोग ॥ 128 ॥ 
गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव ।
कहे कबीर बैकुण्ठ से , फेर दिया शुक्देव ॥ 129 ॥ 
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय ।
चाहे घर में वास कर , चाहे बन को जाय ॥ 130 ॥ 
कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह ।
भीतर से रक्षा करे , बाहर चोई देह ॥ 131 ॥ 
साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं ।
राई से पर्वत करे , पर्वत राई माहिं ॥ 132 ॥ 
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं , जो नहीं बरसे मेह ॥ 133 ॥ 
एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय ।
एक से परचे भया , एक मोह समाय ॥ 134 ॥ 
साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध ।
आशा छोड़े देह की , तन की अनथक साध ॥ 135 ॥ 
हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप ।
निशिवासर सुख निधि , लहा अन्न प्रगटा आप ॥ 136 ॥ 
आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत ।
जोगी फेरी यों फिरो , तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥ 
आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ , जाकी लाई होय ॥ 138 ॥ 
अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं , कोटि पठन को फूट ॥ 139 ॥ 
अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान ।
हरि की बात दुरन्तरा , पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥
आस पराई राखता, खाया घर का खेत ।
और्न को पथ बोधता , मुख में डारे रेत ॥ 141 ॥ 
आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक ।
कह कबीर नहिं उलटिये , वही एक की एक ॥ 142 ॥ 
आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे , तो कहिए कौन प्रसाद ॥ 143 ॥ 
आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले , एक बाँधि जंजीर ॥ 144 ॥ 
आया था किस काम को, तू सोया चादर तान ।
सूरत सँभाल ए काफिला , अपना आप पह्चान ॥ 145 ॥ 
उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय ।
एक हरि के नाम बिन , बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥ 
उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय ।
इतने ही सब जात है , भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥ 
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय ।
मानुष से पशुआ भया , दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा रहे , रहे कबीर विचार ॥ 149 ॥   
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए ।
औरन को शीतल करे , आपौ शीतल होय ॥ 150 ॥
कबीरा संगति साधु की, जौ की भूसी खाय ।
खीर खाँड़ भोजन मिले , ताकर संग न जाय ॥ 151 ॥ 
एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय ।
एक से परचे भया , एक बाहे समाय ॥ 152 ॥ 
कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय ।
अजहूँ नाव समुद्र में , ना जाने का होय ॥ 153 ॥ 
कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय ।
दुख बासे भागा फिरै , सुख में रहै समाय ॥ 154 ॥ 
कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय ।
दुर्गति दूर वहावति , देवी सुमति बनाय ॥ 155 ॥ 
कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय ।
होमी चन्दन बासना , नीम न कहसी कोय ॥ 156 ॥ 
को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय ।
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै , त्यों-त्यों उरझत जाय ॥ 157 ॥ 
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जाएँगे , पड़ा रहेगा म्यान ॥ 158 ॥ 
काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं ।
साँस-साँस सुमिरन करो , और यतन कछु नाहिं ॥ 159 ॥ 
काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ ।
काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ ॥ 160 ॥ 
काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया बह्रा ईश बस , मर्म न काहूँ पाय ॥ 161 ॥ 
कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय ।
इनके भये न उतके , चाले मूल गवाय ॥ 162 ॥ 
कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार ।
साधु वचन जल रूप है , बरसे अम्रत धार ॥ 163 ॥ 
कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे , जो नहीं गहना कोय ॥ 164 ॥ 
कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय ।
जो जैसे संगति करै , सो तैसा फल पाय ॥ 165 ॥ 
कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर ।
ताहि का बखतर बने , ताहि की शमशेर ॥ 166 ॥ 
कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह ।
देह खेह हो जाएगी , कौन कहेगा देह ॥ 167 ॥ 
करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय ।
बोया पेड़ बबूल का , आम कहाँ से खाय ॥ 168 ॥ 
कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं ।
ऐसे घट-घट राम है , दुनिया देखे नाहिं ॥ 169 ॥ 
कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार ।
एक दिना है सोवना , लांबे पाँव पसार ॥ 170 ॥ 
कागा काको घन हरे, कोयल काको देय ।
मीठे शब्द सुनाय के , जग अपनो कर लेय ॥ 171 ॥ 
कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर ।
जो पर पीर न जानइ , सो काफिर के पीर ॥ 172 ॥
कबिरा मनहि गयन्द है , आकुंश दै-दै राखि ।
विष की बेली परि रहै , अम्रत को फल चाखि ॥ 173 ॥ 
कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ ।
काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥ 174 ॥ 
कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय ।
आप ठगे सुख होत है , और ठगे दुख होय ॥ 175 ॥
कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत , नाहीं और उपाय ॥ 176 ॥ 
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।
कै सेवा कर साधु की , कै गोविंद गुनगा ॥ 177 ॥ 
कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहूँ सत आइना , सो जग बैरी होय ॥ 178 ॥ 
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं , जो नहिं बरसे मेह ॥ 179 ॥ 
कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।
वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 180 ॥ 
कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा , दास बन्दगी होय ॥ 181 ॥ 
गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह ।
कह कबीर वा साधु की , हम चरनन की खेह ॥ 182 ॥ 
खेत न छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह ।
आशा जीवन मरण की , मन में राखे नाँह ॥ 183 ॥ 
चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार ।
वाके अग्ङ लपटा रहे , मन मे नाहिं विकार ॥ 184 ॥ 
घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल ।
दाना तो दुश्मन भला , मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥ 
गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच ।
हारि चले सो साधु हैं , लागि चले तो नीच ॥ 186 ॥ 
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय ।
दुइ पट भीतर आइके , साबित बचा न कोय ॥ 187 ॥ 
जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी ।
राम नाम रसना बसे , लीजै जनम सुधारि ॥ 188 ॥ 
जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले , नि:कामा निज देव ॥ 189 ॥ 
जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है , बाँकू है तिरशूल ॥ 190 ॥ 
जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान ।
जैसे खाल लुहार की , साँस लेतु बिन प्रान ॥ 191 ॥ 
ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं ।
मूर्ख लोग न जानिए , बहर ढ़ूंढ़त जांहि ॥ 192 ॥ 
जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप ।
पुछुप बास तें पामरा , ऐसा तत्व अनूप ॥ 193 ॥ 
जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटैं , चारों बाधक रोग ॥ 194 ॥ 
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का , पड़ा रहन दो म्यान ॥ 195 ॥ 
जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे , जामे कौन वोचार ॥ 196 ॥ 
जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं, जँह मैं गाहक नाय ।
बिको न यक भरमत फिरे , पकड़ी शब्द की छाँय ॥ 197 ॥ 
झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद ।
जगत चबेना काल का , कुछ मुख में कुछ गोद ॥ 198 ॥ 
जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे , सब कुछ तेरे पास ॥ 199 ॥ 
जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना , मिले न दीजी बार ॥ 200 ॥

ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत ।
प्रेम बिना पशु जीवना , भक्ति बिना भगवंत ॥ 201 ॥ 
तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय ।
माया तजि भक्ति करे , सूर कहावै सोय ॥ 202 ॥ 
तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय ।
सहजै सब विधि पाइये , जो मन जोगी होय ॥ 203 ॥ 
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश , जब लग ज्ञान ना पूर ॥ 204 ॥ 
दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े , बहुरि न लागे डार ॥ 205 ॥ 
दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन ।
रहे को अचरज भयौ , गये अचम्भा कौन ॥ 206 ॥ 
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सीचें सौ घड़ा , ॠतु आए फल होय ॥ 207 ॥ 
न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय ।
मीन सदा जल में रहै , धोये बास न जाय ॥ 208 ॥ 
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर भी नाम बीन , मुक्ति कैसे होय ॥ 209 ॥ 
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम का , पढ़ै सो पंड़ित होय ॥ 210 ॥ 
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात ।
देखत ही छिप जाएगा , ज्यों सारा परभात ॥ 211 ॥
 पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार ।
याते ये चक्की भली , पीस खाय संसार ॥ 212 ॥ 
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय ।
अब के बिछुड़े ना मिले , दूर पड़ेंगे जाय ॥ 213 ॥ 
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय ।
चाहे घर में बास कर , चाहे बन मे जाय ॥ 214 ॥ 
बन्धे को बँनधा मिले, छूटे कौन उपाय ।
कर संगति निरबन्ध की , पल में लेय छुड़ाय ॥ 215 ॥ 
बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय ।
समुद्र समाना बूँद में , बूझै बिरला कोय ॥ 216 ॥ 
बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम ।
कहा काज संसार से , तुझे धनी से काम ॥ 217 ॥ 
बानी से पहचानिए, साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब , निकले मुँह की बात ॥ 218 ॥ 
बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर ।
पँछी को छाया नहीं , फल लागे अति दूर ॥ 219 ॥ 
मूँड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय ।
बार-बार के मुड़ते , भेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥ 220 ॥ 
माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश ।
जा ठग ने ठगनी ठगो , ता ठग को आदेश ॥ 221 ॥ 
भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग ।
कहैं कबीर कारी गजी , कैसे लागे रंग ॥ 222 ॥ 
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भागत के पीछे लगे , सन्मुख भागे सोय ॥ 223 ॥ 
मथुरा भावै द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ ।
साधु संग हरि भजन बिनु , कछु न आवे हाथ ॥ 224 ॥ 
माली आवत देख के, कलियान करी पुकार ।
फूल-फूल चुन लिए , काल हमारी बार ॥ 225 ॥    
मैं रोऊँ सब जगत् को, मोको रोवे न कोय ।
मोको रोवे सोचना , जो शब्द बोय की होय ॥ 226 ॥ 
ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं ।
सीस उतारे भुँई धरे , तब बैठें घर माहिं ॥ 227 ॥ 
या दुनियाँ में आ कर, छाँड़ि देय तू ऐंठ ।
लेना हो सो लेइले , उठी जात है पैंठ ॥ 228 ॥ 
राम नाम चीन्हा नहीं, कीना पिंजर बास ।
नैन न आवे नीदरौं , अलग न आवे भास ॥ 229 ॥ 
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अनमोल था , कौंड़ी बदले जाए ॥ 230 ॥ 
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय ।
जो सुख साधु सगं में , सो बैकुंठ न होय ॥ 231 ॥ 
संगति सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सो दुख होय ।
कह कबीर तहँ जाइये , साधु संग जहँ होय ॥ 232 ॥ 
साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय ।
ज्यों मेहँदी के पात में , लाली रखी न जाय ॥ 233 ॥ 
साँझ पड़े दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय ।
चल चकवा वा देश को , जहाँ रैन नहिं होय ॥ 234 ॥ 
संह ही मे सत बाँटे, रोटी में ते टूक ।
कहे कबीर ता दास को , कबहुँ न आवे चूक ॥ 235 ॥ 
साईं आगे साँच है, साईं साँच सुहाय ।
चाहे बोले केस रख , चाहे घौंट मुण्डाय ॥ 236 ॥ 
लकड़ी कहै लुहार की, तू मति जारे मोहिं ।
एक दिन ऐसा होयगा , मैं जारौंगी तोहि ॥ 237 ॥ 
हरिया जाने रुखड़ा, जो पानी का गेह ।
सूखा काठ न जान ही , केतुउ बूड़ा मेह ॥ 238 ॥ 
ज्ञान रतन का जतनकर माटी का संसार ।
आय कबीर फिर गया , फीका है संसार ॥ 239 ॥ 
ॠद्धि सिद्धि माँगो नहीं, माँगो तुम पै येह ।
निसि दिन दरशन शाधु को , प्रभु कबीर कहुँ देह ॥ 240 ॥ 
क्षमा बड़े न को उचित है, छोटे को उत्पात ।
कहा विष्णु का घटि गया , जो भुगु मारीलात ॥ 241 ॥
राम-नाम कै पटं तरै, देबे कौं कुछ नाहिं ।
क्या ले गुर संतोषिए , हौंस रही मन माहिं ॥ 242 ॥
बलिहारी गुर आपणौ , घौंहाड़ी कै बार ।
जिनि भानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥ 243 ॥ 
ना गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव ।
दुन्यू बूड़े धार में , चढ़ि पाथर की नाव ॥ 244 ॥ 
सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्मा कर संग ।
बरस्या बादल प्रेम का , भींजि गया अब अंग ॥ 245 ॥ 
कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष ।
स्वाँग जती का पहरि करि , धरि-धरि माँगे भीष ॥ 246 ॥ 
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुरु मिलै , तो भी सस्ता जान ॥ 247 ॥ 
तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ ।
वारी फेरी बलि गई , जित देखौं तित तू ॥ 248 ॥ 
राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप ।
बेस्या केरा पूतं ज्यूं , कहै कौन सू बाप ॥ 249 ॥ 
कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव ।
सूने घर का पांहुणां , ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250 ॥   
कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ ।
फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन , संधे संधि मिलाइ ॥ 251 ॥ 
लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार ।
कहौ संतो , क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥ 
बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ ।
राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥
यह तन जालों मसि करों , लिखों राम का नाउं ।
लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254 ॥ 
अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां ।
के हरि आयां भाजिसी , कैहरि ही पास गयां ॥ 255 ॥ 
इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं ।
लोही सींचो तेल ज्यूं , कब मुख देख पठिउं ॥ 256 ॥ 
अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि ।
जीभड़ियाँ छाला पड़या , राम पुकारि-पुकारि ॥ 257 ॥ 
सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त ।
और न कोई सुणि सकै , कै साईं के चित्त ॥ 258 ॥ 
जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ ।
मन ही माहिं बिसूरणा , ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥ 259 ॥ 
कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त ।
बिन रोयां क्यूं पाइये , प्रेम पियारा मित्व ॥ 260 ॥ 
सुखिया सब संसार है, खावै और सोवे ।
दुखिया दास कबीर है , जागै अरु रौवे ॥ 261 ॥ 
परबति परबति मैं फिरया, नैन गंवाए रोइ ।
सो बूटी पाऊँ नहीं , जातैं जीवनि होइ ॥ 262 ॥ 
पूत पियारौ पिता कौं, गौहनि लागो घाइ ।
लोभ-मिठाई हाथ दे , आपण गयो भुलाइ ॥ 263 ॥ 
हाँसी खैलो हरि मिलै, कौण सहै षरसान ।
काम क्रोध त्रिष्णं तजै , तोहि मिलै भगवान ॥ 264 ॥
जा कारणि में ढ़ूँढ़ती , सनमुख मिलिया आइ ।
धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ ॥ 265 ॥ 
पहुँचेंगे तब कहैगें, उमड़ैंगे उस ठांई ।
आजहूं बेरा समंद मैं , बोलि बिगू पैं काई ॥ 266 ॥ 
दीठा है तो कस कहूं, कह्मा न को पतियाइ ।
हरि जैसा है तैसा रहो , तू हरिष-हरिष गुण गाइ ॥ 267 ॥ 
भारी कहौं तो बहुडरौं, हलका कहूं तौ झूठ ।
मैं का जाणी राम कूं नैनूं कबहूं न दीठ ॥ 268 ॥ 
कबीर एक न जाण्यां, तो बहु जाण्यां क्या होइ ।
एक तै सब होत है , सब तैं एक न होइ ॥ 269 ॥ 
कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ ।
नैनूं रमैया रमि रह्मा , दूजा कहाँ समाइ ॥ 270 ॥ 
कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं ।
गले राम की जेवड़ी , जित खैंचे तित जाउं ॥ 271 ॥ 
कबीर कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो भीत ।
जिन दिल बांध्या एक सूं , ते सुख सोवै निचींत ॥ 272 ॥ 
जब लग भगहित सकामता, सब लग निर्फल सेव ।
कहै कबीर वै क्यूँ मिलै निह्कामी निज देव ॥ 273 ॥ 
पतिबरता मैली भली, गले कांच को पोत ।
सब सखियन में यों दिपै , ज्यों रवि ससि को जोत ॥ 274 ॥ 
कामी अभी न भावई, विष ही कौं ले सोधि ।
कुबुध्दि न जीव की , भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि ॥ 275 ॥ 
भगति बिगाड़ी कामियां , इन्द्री केरै स्वादि ।
हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि ॥ 276 ॥ 
परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि ।
खूणैं बेसिर खाइय , परगट होइ दिवानि ॥ 277 ॥ 
परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं ।
दिवस चारि सरसा रहै , अति समूला जाहिं ॥ 288 ॥ 
ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करना ।
ताथैं संसारी भला , मन मैं रहै डरना ॥ 289 ॥ 
कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद ।
नींद न माँगै साँथरा , भूख न माँगे स्वाद ॥ 290 ॥ 
कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि घरी खटाइ ।
राज-दुबारा यौं फिरै , ज्यँ हरिहाई गाइ ॥ 291 ॥ 
स्वामी हूवा सीतका, पैलाकार पचास ।
राम-नाम काठें रह्मा , करै सिषां की आंस ॥ 292 ॥ 
इहि उदर के कारणे, जग पाच्यो निस जाम ।
स्वामी-पणौ जो सिरि चढ़यो , सिर यो न एको काम ॥ 293॥
ब्राह्म्ण गुरु जगत् का, साधू का गुरु नाहिं ।
उरझि-पुरझि करि भरि रह्मा , चारिउं बेदा मांहि ॥ 294 ॥ 
कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ ।
लालच लोभी मसकरा , तिनकूँ आदर होइ ॥ 295 ॥ 
कलि का स्वमी लोभिया, मनसा घरी बधाई ।
दैंहि पईसा ब्याज़ को , लेखां करता जाई ॥ 296 ॥
कबीर इस संसार कौ , समझाऊँ कै बार ।
पूँछ जो पकड़ै भेड़ की उतर या चाहे पार ॥ 297 ॥ 
तीरथ करि-करि जग मुवा, डूंधै पाणी न्हाइ ।
रामहि राम जपतंडां , काल घसीटया जाइ ॥ 298 ॥ 
चतुराई सूवै पढ़ी, सोइ पंजर मांहि ।
फिरि प्रमोधै आन कौं , आपण समझे नाहिं ॥ 299 ॥ 
कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं घ्रंम ।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या , चेत न देखै भ्रम ॥ 300 ॥
 
सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई ।
तिल इक घर मैं संचरे , तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥ 
हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार ।
मैमता घूमत रहै , नाहि तन की सार ॥ 302 ॥ 
कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि ।
पाका कलस कुंभार का , बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥ 
कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई ।
सिर सौंपे सोई पिवै , नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥ 
त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ ।
जवासा के रुष ज्यूं , घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥ 
कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ ।
सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥ 
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ ।
सतगुरु की कृपा भई , नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥
कबीर माया पापरगी , फंध ले बैठी हाटि ।
सब जग तौ फंधै पड्या , गया कबीर काटि ॥ 308 ॥ 
कबीर जग की जो कहै, भौ जलि बूड़ै दास ।
पारब्रह्म पति छांड़ि करि , करै मानि की आस ॥ 309 ॥ 
बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़या कलंक ।
और पखेरू पी गये , हंस न बौवे चंच ॥ 310 ॥ 
कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह ।
जिहि धारि जिता बाधावणा , तिहीं तिता अंदोह ॥ 311 ॥ 
माया तजी तौ क्या भया, मानि तजि नही जाइ ।
मानि बड़े मुनियर मिले , मानि सबनि को खाइ ॥ 312 ॥ 
करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तुंड ।
जाने-बूझै कुछ नहीं , यौं ही अंधा रुंड ॥ 313 ॥ 
कबीर पढ़ियो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ ।
बावन आषिर सोधि करि , ररै मर्मे चित्त लाइ ॥ 314 ॥ 
मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पाढ़िबा थे भलो जोग ।
राम-नाम सूं प्रीती करि , भल भल नींयो लोग ॥ 315 ॥ 
पद गाएं मन हरषियां, साषी कह्मां अनंद ।
सो तत नांव न जाणियां , गल में पड़िया फंद ॥ 316 ॥ 
जैसी मुख तै नीकसै, तैसी चाले चाल ।
पार ब्रह्म नेड़ा रहै , पल में करै निहाल ॥ 317 ॥ 
काजी-मुल्ला भ्रमियां, चल्या युनीं कै साथ ।
दिल थे दीन बिसारियां , करद लई जब हाथ ॥ 318 ॥ 
प्रेम-प्रिति का चालना, पहिरि कबीरा नाच ।
तन-मन तापर वारहुँ , जो कोइ बौलौ सांच ॥ 319 ॥ 
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदै में सांच है , ताके हिरदै हरि आप ॥ 320 ॥ 
खूब खांड है खीचड़ी, माहि ष्डयाँ टुक कून ।
देख पराई चूपड़ी , जी ललचावे कौन ॥ 321 ॥ 
साईं सेती चोरियाँ, चोरा सेती गुझ ।
जाणैंगा रे जीवएगा , मार पड़ैगी तुझ ॥ 322 ॥ 
तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाय ।
कबीर मूल निकंदिया , कौण हलाहल खाय ॥ 323 ॥ 
जप-तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत बेसास ।
सूवै सैंबल सेविया , यौ जग चल्या निरास ॥ 324 ॥ 
जेती देखौ आत्म, तेता सालिगराम ।
राधू प्रतषि देव है , नहीं पाथ सूँ काम ॥ 325 ॥ 
 कबीर दुनिया देहुरै, सीत नवांवरग जाइ ।
हिरदा भीतर हरि बसै , तू ताहि सौ ल्यो लाइ ॥ 326 ॥ 
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि ।
दसवां द्वारा देहुरा , तामै जोति पिछिरिग ॥ 327 ॥ 
मेरे संगी दोइ जरग, एक वैष्णौ एक राम ।
वो है दाता मुक्ति का , वो सुमिरावै नाम ॥ 328 ॥ 
मथुरा जाउ भावे द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ ।
साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 329 ॥
कबीर संगति साधु की , बेगि करीजै जाइ ।
दुर्मति दूरि बंबाइसी, देसी सुमति बताइ ॥ 330 ॥ 
उज्जवल देखि न धीजिये, वग ज्यूं माडै ध्यान ।
धीर बौठि चपेटसी , यूँ ले बूडै ग्यान ॥ 331 ॥ 
जेता मीठा बोलरगा, तेता साधन जारिग ।
पहली था दिखाइ करि , उडै देसी आरिग ॥ 332 ॥ 
जानि बूझि सांचहिं तर्जे, करै झूठ सूँ नेहु ।
ताकि संगति राम जी , सुपिने ही पिनि देहु ॥ 333 ॥ 
कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै ।
नहिंतर बेगि उठाइ , नित का गंजर को सहै ॥ 334 ॥ 
कबीरा बन-बन मे फिरा, कारणि आपणै राम ।
राम सरीखे जन मिले , तिन सारे सवेरे काम ॥ 335 ॥ 
कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय ।
जो जैसी संगति करै , सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥ 
कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई ।
जाइ मिलै जब गंग से , तब गंगोदक होइ ॥ 337 ॥ 
माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई ।
ताली पीटै सिरि घुनै , मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥ 
मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ ।
कदली-सीप-भुजगं मुख , एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥
 हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत ।
ते णर कदे न नीपजौ , ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥
काजल केरी कोठड़ी , तैसी यहु संसार ।
बलिहारी ता दास की , पैसिर निकसण हार ॥ 341 ॥ 
पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण ।
पवनां बेगि उतावला , सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 342 ॥ 
आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति ।
जोगी फेरी फिल करूँ , यौं बिनना वो सूति ॥ 343 ॥
हस्ती चढ़िये ज्ञान की, सहज दुलीचा डार ।
श्वान रूप संसार है , भूकन दे झक मार ॥ 344 ॥ 
या दुनिया दो रोज की, मत कर या सो हेत ।
गुरु चरनन चित लाइये , जो पूरन सुख हेत ॥ 345  ॥ 
कबीर यह तन जात है, सको तो राखु बहोर ।
खाली हाथों वह गये , जिनके लाख करोर ॥ 346 ॥ 
सरगुन की सेवा करो, निरगुन का करो ज्ञान ।
निरगुन सरगुन के परे , तहीं हमारा ध्यान ॥ 347 ॥ 
घन गरजै, दामिनि दमकै, बूँदैं बरसैं, झर लाग गए।
हर तलाब में कमल खिले , तहाँ भानु परगट भये॥ 348 ॥ 
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।
जो कासी तन तजै कबीरा , रामे कौन निहोरा ॥ 349 ॥  
कबीरा प्याला प्रेम का, अंतर लिया लगाय ।
रोम रोम में रमि रहा, और अमल क्या खाय ॥ 350 ॥
जल में बसै कमोदिनी, चंदा बसै अकास । 
जो है जाको भावता, सो ताही के पास ॥ 351॥
प्रीतम के पतियाँ लिखूँ, जो कहुँ होय बिदेस । 
तन में मन में नैन में, ताको कहा सँदेस ॥ 352 ॥
कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ । 
विष की क्यारी बोइ करि , लुणत कहा पछिताइ ॥ 353 ॥
कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग ।
कहै कबीर कैसे तिरूँ , पंच कुसंगी संग ॥ 354 ॥ 
मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि ।
जबहीं चालै पीठि दे , अंकुस दै-दै फेरि ॥ 355 ॥ 
मनह मनोरथ छाँड़िये, तेरा किया न होइ ।
पाणी में घीव नीकसै , तो रूखा खाइ न कोइ ॥ 356 ॥ 
एक दिन ऐसा होएगा, सब सूँ पड़े बिछोइ ।
राजा राणा छत्रपति , सावधान किन होइ ॥ 357 ॥ 
कबीर नौबत आपणी, दिन-दस लेहू बजाइ ।
ए पुर पाटन , ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥ 358 ॥ 
जिनके नौबति बाजती, भैंगल बंधते बारि ।
एकै हरि के नाव बिन , गए जनम सब हारि ॥ 359 ॥ 
कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ ।
इत के भये न उत के , चलित भूल गँवाइ ॥ 360 ॥
बिन रखवाले बाहिरा , चिड़िया खाया खेत ।
आधा-परधा ऊबरै , चेति सकै तो चैति ॥ 361 ॥ 
कबीर कहा गरबियौ, काल कहै कर केस ।
ना जाणै कहाँ मारिसी , कै धरि के परदेस ॥ 362 ॥ 
नान्हा कातौ चित्त दे, महँगे मोल बिलाइ ।
गाहक राजा राम है , और न नेडा आइ ॥ 363 ॥ 
उजला कपड़ा पहिरि करि, पान सुपारी खाहिं ।
एकै हरि के नाव बिन , बाँधे जमपुरि जाहिं ॥ 364 ॥ 
कबीर केवल राम की, तू जिनि छाँड़ै ओट ।
घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ , घणी सहै सिर चोट ॥ 365 ॥ 
मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै तो निकसौ भाजि ।
कब लग राखौ हे सखी , रुई लपेटी आगि ॥ 366 ॥ 
कबीर माला मन की, और संसारी भेष ।
माला पहरयां हरि मिलै , तौ अरहट कै गलि देखि ॥ 367 ॥ 
माला पहिरै मनभुषी, ताथै कछू न होइ ।
मन माला को फैरता , जग उजियारा सोइ ॥ 368 ॥ 
कैसो कहा बिगाड़िया, जो मुंडै सौ बार ।
मन को काहे न मूंडिये , जामे विषम-विकार ॥ 369 ॥ 
माला पहरयां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ ।
माथौ मूँछ मुंडाइ करि , चल्या जगत् के साथ ॥ 370 ॥ 
बैसनो भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक ।
छापा तिलक बनाइ करि , दगहया अनेक ॥ 371 ॥
स्वाँग पहरि सो रहा भया , खाया-पीया खूंदि ।
जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि ॥ 372 ॥ 
चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात ।
एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ ॥ 373 ॥ 
एष ले बूढ़ी पृथमी, झूठे कुल की लार ।
अलष बिसारयो भेष में , बूड़े काली धार ॥ 374 ॥ 
कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर ।
रैणि न आवै नींदड़ी , अंगि न चढ़ई मांस ॥ 375 ॥  
 सिंहों के लेहँड नहीं, हंसों की नहीं पाँत ।
लालों की नहि बोरियाँ , साध न चलै जमात ॥ 376 ॥ 
गाँठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह ।
कह कबीर ता साध की , हम चरनन की खेह ॥ 377 ॥ 
निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह ।
विषिया सूं न्यारा रहै , संतनि का अंग सह ॥ 378 ॥ 
जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छाना होइ ।
जतन-जतन करि दाबिये , तऊ उजाला सोइ ॥ 379 ॥ 
काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि ।
कबीर बिचारा क्या कहै , जाकि सुख्देव बोले साख ॥380 
राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोई ।
तंबोली के पान ज्यूं , दिन-दिन पीला होई ॥ 381 ॥ 
पावक रूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ ।
चित चकमक लागै नहीं , ताथै घूवाँ है-है जाइ ॥ 382 ॥ 
फाटै दीदै में फिरौं, नजिर न आवै कोई ।
जिहि घटि मेरा साँइयाँ , सो क्यूं छाना होई ॥ 383 ॥ 
हैवर गैवर सघन धन, छत्रपती की नारि ।
तास पटेतर ना तुलै , हरिजन की पनिहारि ॥ 384 ॥ 
जिहिं धरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं ।
ते घर भड़धट सारषे , भूत बसै तिन माहिं ॥ 385 ॥ 
कबीर कुल तौ सोभला, जिहि कुल उपजै दास ।
जिहिं कुल दास न उपजै , सो कुल आक-पलास ॥ 386 ॥ 
क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौ मान ।
वा माँग सँवारे पील कौ , या नित उठि सुमिरैराम ॥ 387 ॥ 
काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम ।
मोट चून मैदा भया , बैठि कबीरा जीम ॥ 388 ॥ 
दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि ।
सदा अजंदी राम के , जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥ 389 ॥ 
कबीर दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि ।
यहु सीतल बहु तपति है , दोऊ कहिये आगि ॥ 390 ॥ 
कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ ।
अण्च्यंत्या हरिजी करै , जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 391 ॥ 
भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग ।
भांडा घड़ि जिनि मुख यिका , सोई पूरण जोग ॥ 392 ॥ 
रचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ ।
दिल मंदि मैं पैसि करि , ताणि पछेवड़ा सोइ ॥ 393 ॥ 
कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ ।
हरि बिन अपना कोउ नहीं , देखे ठोकि बनाइ ॥ 394 ॥
 मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई ।
कहै कबीर रघुनाथ सूं , मति रे मंगावे मोहि ॥ 395 ॥ 
मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह ।
ए सबहीं अहला गया , जबही कह्या कुछ देह ॥ 396 ॥ 
संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ ।
साईं सूं सनमुख रहै , जहाँ माँगे तहां देइ ॥ 397 ॥ 
कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत ।
काम-क्रोध सूं झूझणा , चौडै मांड्या खेत ॥ 398 ॥ 
कबीर सोई सूरिमा, मन सूँ मांडै झूझ ।
पंच पयादा पाड़ि ले , दूरि करै सब दूज ॥ 399 ॥ 
जिस मरनै यैं जग डरै, सो मेरे आनन्द ।
कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 400 ॥
 
अब तौ जूझया ही बरगै, मुडि चल्यां घर दूर ।
सिर साहिबा कौ सौंपता , सोंच न कीजै सूर ॥ 401 ॥
 कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चाढ़ि असवार ।
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि , भली मचाई मार ॥ 402 ॥ 
कबीर हरि सब कूँ भजै, हरि कूँ भजै न कोइ ।
जब लग आस सरीर की , तब लग दास न होइ ॥ 403 ॥ 
सिर साटें हरि सेवेये, छांड़ि जीव की बाणि ।
जे सिर दीया हरि मिलै , तब लगि हाणि न जाणि ॥ 404 ॥
जेते तारे रैणि के , तेतै बैरी मुझ ।
धड़ सूली सिर कंगुरै, तऊ न बिसारौ तुझ ॥ 405 ॥ 
आपा भेटियाँ हरि मिलै, हरि मेट् या सब जाइ ।
अकथ कहाणी प्रेम की , कह्या न कोउ पत्याइ ॥ 406 ॥ 
जीवन थैं मरिबो भलौ, जो मरि जानैं कोइ ।
मरनैं पहली जे मरै , जो कलि अजरावर होइ ॥ 407 ॥ 
कबीर मन मृतक भया, दुर्बल भया सरीर ।
तब पैंडे लागा हरि फिरै , कहत कबीर कबीर ॥ 408 ॥ 
रोड़ा है रहो बाट का, तजि पाषंड अभिमान ।
ऐसा जे जन है रहै , ताहि मिलै भगवान ॥ 409 ॥ 
कबीर चेरा संत का, दासनि का परदास ।
कबीर ऐसैं होइ रक्षा , ज्यूँ पाऊँ तलि घास ॥ 410 ॥ 
अबरन कों का बरनिये, भोपै लख्या न जाइ ।
अपना बाना वाहिया , कहि-कहि थाके भाइ ॥ 411 ॥ 
जिसहि न कोई विसहि तू, जिस तू तिस सब कोई ।
दरिगह तेरी सांइयाँ , जा मरूम कोइ होइ ॥ 412 ॥ 
साँई मेरा वाणियां, सहति करै व्यौपार ।
बिन डांडी बिन पालड़ै तौले सब संसार ॥ 413 ॥ 
झल बावै झल दाहिनै, झलहि माहि त्योहार ।
आगै-पीछै झलमाई , राखै सिरजनहार ॥ 414 ॥ 
एसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ ।
औरन को सीतल करै , आपौ सीतल होइ ॥ 415 ॥
कबीर हरि कग नाव सूँ प्रीति रहै इकवार ।
तौ मुख तैं मोती झड़ै हीरे अन्त न पार ॥ 416 ॥ 
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।
दुहुँ चूका रीता पड़ै वाकूँ वार न पार ॥ 417 ॥ 
कोई एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि ।
बस्तर बासन सूँ खिसै , चोर न सकई लागि ॥ 418 ॥ 
बारी-बारी आपणीं, चले पियारे म्यंत ।
तेरी बारी रे जिया , नेड़ी आवै निंत ॥ 419 ॥ 
पदारथ पेलि करि, कंकर लीया हाथि ।
जोड़ी बिछटी हंस की , पड़या बगां के साथि ॥ 420 ॥ 
निंदक नियारे राखिये, आंगन कुटि छबाय ।
बिन पाणी बिन सबुना , निरमल करै सुभाय ॥ 421 ॥ 
गोत्यंद के गुण बहुत हैं, लिखै जु हिरदै मांहि ।
डरता पाणी जा पीऊं , मति वै धोये जाहि ॥ 422 ॥ 
जो ऊग्या सो आंथवै, फूल्या सो कुमिलाइ ।
जो चिणियां सो ढहि पड़ै , जो आया सो जाइ ॥ 423 ॥ 
सीतलता तब जाणियें, समिता रहै समाइ ।
पष छाँड़ै निरपष रहै , सबद न देष्या जाइ ॥ 424 ॥ 
खूंदन तौ धरती सहै, बाढ़ सहै बनराइ ।
कुसबद तौ हरिजन सहै , दूजै सह्या न जाइ ॥ 425 ॥  
 नीर पियावत क्या फिरै, सायर घर-घर बारि ।
जो त्रिषावन्त होइगा , सो पीवेगा झखमारि ॥ 426 ॥
कबीर सिरजन हार बिन , मेरा हित न कोइ ।
गुण औगुण बिहणै नहीं, स्वारथ बँधी लोइ ॥ 427 ॥ 
हीरा परा बजार में, रहा छार लपिटाइ ।
ब तक मूरख चलि गये पारखि लिया उठाइ ॥ 428 ॥ 
सुरति करौ मेरे साइयां, हम हैं भोजन माहिं ।
आपे ही बहि जाहिंगे , जौ नहिं पकरौ बाहिं ॥ 429 ॥ 
क्या मुख लै बिनती करौं, लाज आवत है मोहि ।
तुम देखत ओगुन करौं , कैसे भावों तोहि ॥ 430 ॥ 
सब काहू का लीजिये, साचां सबद निहार ।
पच्छपात ना कीजिये कहै कबीर विचार ॥ 431 ॥ 

॥ गुरु के विषय में दोहे ॥ 

गुरु सों ज्ञान जु लीजिये सीस दीजिए दान ।
बहुतक भोदूँ बहि गये , राखि जीव अभिमान ॥ 432 ॥ 
गुरु को कीजै दण्डव कोटि-कोटि परनाम ।
कीट न जाने भृगं को , गुरु करले आप समान ॥ 433 ॥ 
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय ।
जनम-जनम का मोरचा , पल में डारे धोय ॥ 434 ॥ 
गुरु पारस को अन्तरो, जानत है सब सन्त ।
वह लोहा कंचन करे , ये करि लेय महन्त ॥ 435 ॥ 
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय ।
कहैं कबीर सो सन्त हैं , आवागमन नशाय ॥ 436 ॥
जो गुरु बसै बनारसी , सीष समुन्दर तीर ।
एक पलक बिसरे नहीं , जो गुण होय शरीर ॥ 437 ॥ 
गुरु समान दाता नहीं, याचक सीष समान ।
तीन लोक की सम्पदा , सो गुरु दीन्ही दान ॥ 438 ॥ 
गुरु कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट ।
अन्तर हाथ सहार दै , बाहर बाहै चोट ॥ 439 ॥ 
गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं ।
कहैं कबीर ता दास को , तीन लोक भय नहिं ॥ 440 ॥
 लच्छ कोष जो गुरु बसै, दीजै सुरति पठाय ।
शब्द तुरी बसवार है , छिन आवै छिन जाय ॥ 441 ॥ 
गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर ।
आठ पहर निरखता रहे , गुरु मूरति की ओर ॥ 442 ॥ 
गुरु सों प्रीति निबाहिये, जेहि तत निबटै सन्त ।
प्रेम बिना ढिग दूर है , प्रेम निकट गुरु कन्त ॥ 443 ॥ 
गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष ।
गुरु बिन लखै न सत्य को , गुरु बिन मिटे न दोष ॥ 444 ॥ 
मूरति आगे खड़ी, दुनिया भेद कछु नाहिं ।
उन्हीं कूँ परनाम करि , सकल तिमिर मिटि जाहिं ॥ 445 ॥ 
गुरु शरणागति छाड़ि के, करै भरौसा और ।
सुख सम्पति की कह चली , नहीं परक ये ठौर ॥ 446 ॥ 
सिष खांडा गुरु भसकला, चढ़ै शब्द खरसान ।
शब्द सहै सम्मुख रहै , निपजै शीष सुजान ॥ 447 ॥ 
ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास ।
गुरु सेवा ते पाइये , सद्गुरु चरण निवास ॥ 448 ॥ 
अहं अग्नि निशि दिन जरै, गुरु सो चाहे मान ।
ताको जम न्योता दिया , होउ हमार मेहमान ॥ 449 ॥ 
जैसी प्रीति कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय ।
कहैं कबीर ता दास का , पला न पकड़ै कोय ॥ 450 ॥   
मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है , मूल सत्य सतभाव ॥ 451 ॥ 
पंडित पाढ़ि गुनि पचि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान ।
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परनाम ॥ 452 ॥ 
सोइ-सोइ नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम ।
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन , कतहुँ कुशल नहि क्षेम ॥ 453 ॥
 कहैं कबीर जजि भरम को, नन्हा है कर पीव ।
तजि अहं गुरु चरण गहु , जमसों बाचै जीव ॥ 454 ॥ 
कोटिन चन्दा उगही, सूरज कोटि हज़ार ।
तीमिर तौ नाशै नहीं , बिन गुरु घोर अंधार ॥ 455 ॥ 
तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत ।
ते रहियें गुरु सनमुखाँ कबहूँ न दीजै पीठ ॥ 456 ॥ 
तन मन शीष निछावरै, दीजै सरबस प्रान ।
कहैं कबीर गुरु प्रेम बिन , कितहूँ कुशल नहिं क्षेम ॥ 457 ॥ 
जो गुरु पूरा होय तो, शीषहि लेय निबाहि ।
शीष भाव सुत्त जानिये , सुत ते श्रेष्ठ शिष आहि ॥ 458 ॥ 
भौ सागर की त्रास तेक, गुरु की पकड़ो बाँहि ।
गुरु बिन कौन उबारसी , भौ जल धारा माँहि ॥ 459 ॥ 
करै दूरि अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदेय ।
बलिहारी वे गुरुन की हंस उबारि जुलेय ॥ 460 ॥ 
सुनिये सन्तों साधु मिलि, कहहिं कबीर बुझाय ।
जेहि विधि गुरु सों प्रीति छै कीजै सोई उपाय ॥ 461 ॥
 अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहि करै प्रतिपाल ।
अपनी और निबाहिये , सिख सुत गहि निज चाल ॥ 462 ॥
 लौ लागी विष भागिया, कालख डारी धोय ।
कहैं कबीर गुरु साबुन सों , कोई इक ऊजल होय ॥ 463 ॥ 
राजा की चोरी करे, रहै रंग की ओट ।
कहैं कबीर क्यों उबरै , काल कठिन की चोट ॥ 464 ॥ 
साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे राखे मोय ।
जल सो अरसां नहिं , क्यों कर ऊजल होय ॥ 465 ॥   

॥ सतगुरु के विषय मे दोहे ॥   

सत्गुरु तो सतभाव है , जो अस भेद बताय ।
धन्य शीष धन भाग तिहि जो ऐसी सुधि पाय ॥ 466 ॥ 
सतगुरु शरण न आवहीं, फिर फिर होय अकाज ।
जीव खोय सब जायेंगे काल तिहूँ पुर राज ॥ 467 ॥ 
सतगुरु सम कोई नहीं सात दीप नौ खण्ड ।
तीन लोक न पाइये , अरु इक्कीस ब्रह्म्ण्ड ॥ 468 ॥ 
सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय ।
भ्रम का भांड तोड़ि करि , रहै निराला होय ॥ 469 ॥ 
सतगुरु मिले जु सब मिले, न तो मिला न कोय ।
माता-पिता सुत बाँधवा ये तो घर घर होय ॥ 470 ॥
जेहि खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव ।
कहै कबीर सुन साधवा , करु सतगुरु की सेव ॥ 471 ॥ 
मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर ।
अब देवे को क्या रहा , यों कयि कहहिं कबीर ॥ 472 ॥ 
सतगुरु को माने नही, अपनी कहै बनाय ।
कहै कबीर क्या कीजिये , और मता मन जाय ॥ 473 ॥ 
जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान ।
तामें निपट अनूप है , सतगुरु लागा कान ॥ 474 ॥ 
कबीर समूझा कहत है, पानी थाह बताय ।
ताकूँ सतगुरु का करे , जो औघट डूबे जाय ॥ 475 ॥  
बिन सतगुरु उपदेश, सुर नर मुनि नहिं निस्तरे ।
ब्रह्मा-विष्णु , महेश और सकल जिव को गिनै ॥ 476 ॥ 
केते पढ़ि गुनि पचि भुए, योग यज्ञ तप लाय ।
बिन सतगुरु पावै नहीं , कोटिन करे उपाय ॥ 477 ॥ 
डूबा औघट न तरै, मोहिं अंदेशा होय ।
लोभ नदी की धार में , कहा पड़ो नर सोइ ॥ 478 ॥ 
सतगुरु खोजो सन्त, जोव काज को चाहहु ।
मेटो भव को अंक , आवा गवन निवारहु ॥ 479 ॥ 
करहु छोड़ कुल लाज, जो सतगुरु उपदेश है ।
होये सब जिव काज , निश्चय करि परतीत करू ॥ 480 ॥ 
यह सतगुरु उपदेश है, जो मन माने परतीत ।
करम भरम सब त्यागि के , चलै सो भव जल जीत ॥ 481॥ 
जग सब सागर मोहिं, कहु कैसे बूड़त तेरे ।
गहु सतगुरु की बाहिं जो जल थल रक्षा करै ॥ 482 ॥ 

॥ गुरु पारख पर दोहे ॥  

जानीता बूझा नहीं बूझि किया नहीं गौन ।
अन्धे को अन्धा मिला , राह बतावे कौन ॥ 483 ॥ 
जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरन्ध ।
अन्धे को अन्धा मिला , पड़ा काल के फन्द ॥ 484 ॥ 
गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव ।
दोनों बूड़े बापुरे , चढ़ि पाथर की नाँव ॥ 485 ॥ 
आगे अंधा कूप में, दूजे लिया बुलाय ।
दोनों बूडछे बापुरे , निकसे कौन उपाय ॥ 486 ॥ 
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में , फिर फिर गोता खाहि ॥ 487 ॥ 
पूरा सतगुरु न मिला, सुनी अधूरी सीख ।
स्वाँग यती का पहिनि के , घर घर माँगी भीख ॥ 488 ॥
 कबीर गुरु है घाट का, हाँटू बैठा चेल ।
मूड़ मुड़ाया साँझ कूँ गुरु सबेरे ठेल ॥ 489 ॥ 
गुरु-गुरु में भेद है, गुरु-गुरु में भाव ।
सोइ गुरु नित बन्दिये , शब्द बतावे दाव ॥ 490 ॥ 
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय ।
सो गुरु झूठा जानिये , त्यागत देर न लाय ॥ 491 ॥ 
झूठे गुरु के पक्ष की, तजत न कीजै वार ।
द्वार न पावै शब्द का , भटके बारम्बार ॥ 492 ॥ 
सद्गुरु ऐसा कीजिये, लोभ मोह भ्रम नाहिं ।
दरिया सो न्यारा रहे , दीसे दरिया माहि ॥ 493 ॥ 
कबीर बेड़ा सार का, ऊपर लादा सार ।
पापी का पापी गुरु , यो बूढ़ा संसार ॥ 494 ॥ 
जो गुरु को तो गम नहीं, पाहन दिया बताय ।
शिष शोधे बिन सेइया , पार न पहुँचा जाए ॥ 495 ॥
 सोचे गुरु के पक्ष में, मन को दे ठहराय ।
चंचल से निश्चल भया , नहिं आवै नहीं जाय ॥ 496 ॥ 
गु अँधियारी जानिये, रु कहिये परकाश ।
मिटि अज्ञाने ज्ञान दे , गुरु नाम है तास ॥ 497 ॥ 
गुरु नाम है गम्य का, शीष सीख ले सोय ।
बिनु पद बिनु मरजाद नर , गुरु शीष नहिं कोय ॥ 498 ॥ 
गुरुवा तो घर फिरे, दीक्षा हमारी लेह ।
कै बूड़ौ कै ऊबरो , टका परदानी देह ॥ 499 ॥ 
गुरुवा तो सस्ता भया, कौड़ी अर्थ पचास ।
अपने तन की सुधि नहीं , शिष्य करन की आस ॥ 500 ॥

जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय ।
कीच-कीच के धोवते , दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥  
गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप ।
हरष शोष व्यापे नहीं , तब गुरु आपे आप ॥ 502 ॥ 
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुरु मिलै , तो भी सस्ता जान ॥ 503 ॥ 
बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय ।
कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय ॥ 504 ॥ 
गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग ।
कहैं कबीर मैक्ली गजी , कैसे लागू रंग ॥ 505 ॥ 
गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर ।
नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर ॥ 506 ॥ 
कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला ।
गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 507 ॥  

 ॥ गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥ 

शिष्य पुजै आपना , गुरु पूजै सब साध ।
कहैं कबीर गुरु शीष को , मत है अगम अगाध ॥ 508 ॥ 
हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय ।
ताके सद्गुरु कहा करें , घनघसि कुल्हरन होय ॥ 509 ॥ 
ऐसा कोई न मिला, जासू कहूँ निसंक ।
जासो हिरदा की कहूँ , सो फिर मारे डंक ॥ 510 ॥ 
शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय ।
कीच-कीच के दाग को , कैसे सके छुड़ाय ॥ 511 ॥ 
स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय ।
चतुराई रीझै नहीं , रहिये मन के माय ॥ 512 ॥ 
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे , परे चौरासी खानि ॥ 513 ॥ 
सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय ।
जब सत को सतिया मिले , विष तजि अमृत होय ॥ 514 ॥ 
देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल ।
जा देखै सुख उपजै , वाका पड़ा दुकाल ॥ 515 ॥  

 ॥ भक्ति के विषय मे दोहे ॥  

कबीर गुरु की भक्ति बिन , राजा ससभ होय ।
माटी लदै कुम्हार की , घास न डारै कोय ॥ 516 ॥ 
कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय ।
गली-गली भूँकत फिरै , टूक न डारै कोय ॥ 517 ॥ 
जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात ।
सो तो होगी कूकरी , फिरै उघारे गात ॥ 518 ॥ 
चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं ।
तेहि घर किसका चाँदना , जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥ 519 ॥ 
हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह ।
सूखा काठ न जानिहै , कितहूँ बूड़ा गेह ॥ 520 ॥ 
झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह ।
माटी गलि पानी भई , पाहन वाही नेह ॥ 521 ॥ 
कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द न लागे सार ।
सुधि-सुधि के हिरदे विधे , उपजै ज्ञान विचार ॥ 522 ॥ 
कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय ।
बूड़यो बाँस बड़ाइया , यों जनि बूड़ो कोय ॥ 523 ॥ 
पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया न खीज ।
ऊसर बीज न उगसी , बोवै दूना बीज ॥ 524 ॥
कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार ।
कहैं कबीर गुरु बेमुखी , कबहूँ न पावै पार ॥ 525 ॥  
साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग ।
ताकि औषण मौन है , विष नहिं व्यापै अंग ॥ 526 ॥ 
शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार ।
बिनु गुरु निगुरा जो रहे , पड़े चौरासी धार ॥ 527 ॥ 
कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय ।
बगुला परख न जानई , हंस चुनि-चुनि खाय ॥ 528 ॥ 
साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय ।
जो कौवा मठ हगि भरै , तो मठ को कहा नशाय ॥ 529 ॥ 
साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय ।
दो अच्छर गुरु बहिरा , बाधा जमपुर जाय ॥ 530 ॥ 
कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय ।
एक गुवाड़े कदि बड़ै , रोज गदहरा गाय ॥ 531 ॥ 
संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ ।
कंचन कटोरा छाड़ि के , सनहक लीन्ही हाथ ॥ 532 ॥
 साकट संग न बैठिये करन कुबेर समान ।
ताके संग न चलिये , पड़ि हैं नरक निदान ॥ 533 ॥ 
टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि ।
टेक छाड़ि मानिक मिलै , सत गुरु वचन प्रमानि ॥ 534 ॥
 साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है ।
कोटि जतन परमोघिये , तऊ न छाड़े टेक ॥ 535 ॥ 
निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार ।
देवतन से कुत्ता भला , नित उठि भूँके द्वार ॥ 536 ॥ 
हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो ।
भाव भक्ति समझयो नहीं , मूरख चूकि गयो ॥ 537 ॥ 
खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय ।
एक धरा में दो मता , भक्ति कहाँ ते होय ॥ 538 ॥ 
घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास ।
वो तो होगी शूकरी , वो रखवाला पास ॥ 539 ॥ 
आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल ।
साघु सो झगड़ा भला , ना साकट सों मेल ॥ 540 ॥ 
कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय ।
जो होवै सूली सजा , काँटे ई टरि जाय ॥ 541 ॥ 
कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय ।
अंक भरे भारि भेटिये , पाप शरीर जाय ॥ 542 ॥ 
कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि ।
ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी , आलस मन से हानि ॥ 543 ॥
कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय ।
कबीर साधु दरश ते , काल दगा नहिं देय ॥ 544 ॥ 
दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय ।
कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय ॥ 545 ॥ 
तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय ।
यामें विलंब न कीजिये , कहैं कबीर समुझाय ॥ 546 ॥ 
दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार ।
कबीर साधु दरश ते , उतरैं भव जल पार ॥ 547 ॥ 
बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय ।
कहैं कबीरन सो भक्त जन , जन्म सुफल करि लेय ॥ 548 ॥ 
पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय ।
यामें देर न लाइये , कहैं कबीर समुदाय ॥ 549 ॥ 
बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष ।
कहै कबीर वा जीव सो , कबहु न पावै योष ॥ 550 ॥ 
छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय ।
कहैं कबीर सो भक्तजन , जमहिं चुनौती देय ॥ 551 ॥ 
मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त ।
यामें ढील न कीजिये , कहै कबीर अविगत्त ॥ 552 ॥ 
मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि ।
साधु दरश को जब चलैं , ये अटकावै आनि ॥ 553 ॥ 
साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान ।
कहैं कबीर कछु भेट धरूँ , अपने बित्त अनुमान ॥ 554 ॥ 
इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय ।
कहै कबीर सोई सन्तजन , मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥ 555 ॥ 
खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय ।
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ , जो तेरे घर होय ॥ 556 ॥ 
सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि ।
कहै कबीर संतन को , देत न कीजै कानि ॥ 557 ॥ 
कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय ।
यही सीख बुध लीजिए , कहै कबीर बुझाय ॥ 558 ॥ 
टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर ।
साधु देत न सकुचिये , यों कशि कहहिं कबीर ॥ 559 ॥
 कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि ।
कहै कबीर सन्तन को , देत न कीजै कानि ॥ 560 ॥ 
साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह ।
माथा का ग्रह उतरा , नैनन बढ़ा सनेह ॥ 561 ॥
साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय ।
मन्द भाग मट्टी भरे , कंकर हाथ लगाय ॥ 562 ॥ 
साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन ।
धूनी पानी साथरा , सरधा सेती अन्न ॥ 563 ॥ 
साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर ।
सो तो होसी चूह्रा , बसै गाँव की ओर ॥ 564 ॥ 
साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट ।
शीश नवावत ढ़हि परै , अघ पावन को पोट ॥ 565 ॥ 
साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार ।
जग में होते साधु नहिं , जर भरता संसार ॥ 566 ॥ 
साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग ।
तपन बुझावै ओर की , देदे अपनो रंग ॥ 567 ॥ 
आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय ।
कहै कबीर वा दास की , मुक्ति कहाँ से होय ॥ 568 ॥ 
छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय ।
जीवन जस है जगन में , अन्त परम पद पाय ॥ 569 ॥ 
सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह ।
परमारथ के कारने , चारों धारी देह ॥ 570 ॥ 
बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचय नीर ।
परमारथ के कारने , साधु धरा शरीर ॥ 571 ॥ 
सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध ।
कहै कबीर वह कब मिले , परम सनेही साध ॥ 572 ॥ 
साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव ।
चंदन की कुटकी भली , ना बूबल बनराव ॥ 573 ॥ 
कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल ।
कहा साध की जाति है , कह पारस का मोल ॥ 574 ॥ 
हयबर गयबर सधन धन, छत्रपति की नारि ।
तासु पटतरा न तुले , हरिजन की परिहारिन ॥ 575 ॥   
क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान ।
वह माँग सँवारे पीववहित , नित वह सुमिरे राम ॥ 576 ॥ 
जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप ।
जो सुख सहजै पाईया , सन्तों संगति आप ॥ 577 ॥ 
साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड ।
सिद्ध जु वारे आपको , साधु तारि नौ खण्ड ॥ 578 ॥ 
कबीर शीतल जल नहीं, हिम न शीतल होय ।
कबीर शीतल सन्त जन , राम सनेही सोय ॥ 579 ॥ 
आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद ।
षट दर्शन खटपट करै , बिरला पावै भेद ॥ 580 ॥ 
कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय ।
जब लग साधु न सेवई , तब लग काचा काम ॥ 581 ॥ 
वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस ।
गीता हूँ कि गत नहीं , सन्त किया परवेस ॥ 582 ॥ 
सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान ।
शब्द सनेही ना मिले , प्राण देह में आन ॥ 583 ॥ 
साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं ।
पान फूल छेड़े नहीं , बसै बगीचा माहिं ॥ 584 ॥ 
साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार ।
डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार ॥ 585 ॥ 
साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर ।
चढ़े तो चाखै प्रेम रस , गिरै तो चकनाचूर ॥ 586 ॥ 
साधु चाल जु चालई, साधु की चाल ।
बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय ॥ 587 ॥ 
साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल ।
परमारथ राता रहै , बोलै बचन रसाल ॥ 588 ॥ 
साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास ।
टुक-टुक तहाँ विलम्बिया ,जहँ शीतल शब्द निवास ॥ 589॥ 
साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि ।
अपने मत गाड़ा रहै , साधुन का मत येहि ॥ 590 ॥ 
साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट ।
माथा बाँधि पताक सों , नेजा घालैं चोट ॥ 591 
साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत ।
कोई विवेकी लाल है , और सेत का सेत ॥ 592 ॥ 
साधु सती औ सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ ।
सिंह न मारे मेढ़का , साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥ 
साधु तो हीरा भया, न फूटै धन खाय ।
न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय ॥ 594 ॥ 
साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर ।
शब्द विवेकी पारखी , ते माथे के मौर ॥ 595 ॥ 
सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार ।
आश एक गुरुदेव की , और चित्त विचार ॥ 596 ॥
 दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप ।
उपकारी निहकामता , उपजै छोह न ताप ॥ 597 ॥
 सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय ।
छिमा ज्ञान सत भाखही , सिंह रहित तु होय ॥ 598 ॥ 
साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक ।
बाहर मिलते सों मिलें , अन्तर सबसों एक ॥ 599 ॥ 
सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात ।
निर्विकार गम्भीर मत , धीरज दया बसात ॥ 600 ॥

निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह ।
विषया सो न्यारा रहे , साधुन का मत येह ॥ 601 ॥ 
मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान ।
जो कोर्ठ आशा करै , उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥ 
और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय ।
स्वल्पाहार भोजन करूँ , तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥ 
जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं ।
डिंभ चाल करनी करे , साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥ 
इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय ।
सदा शुद्ध आचरण में , रह विचार में सोय ॥ 605 ॥ 
शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता , कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥ 
कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव ।
साधु दोऊ को पोषते , भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥ 
सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत ।
मलय भुवंगय बेधिया , शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥ 
कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं ।
बालक केरि धाय ज्यों , अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥ 
बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय ।
साधू जन रमा भला , दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥ 
बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय ।
साधु जन बैठा भला , जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥ 
एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ ।
अवगुण छाड़ै गुण गहै , ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥ 
जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय ।
भीतर और न बसावई , ऊपर और न होय ॥ 613 ॥ 
उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग ।
यों साधू संसार में , कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥ 
तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल ।
कहैं कबीर ता साधु को , गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥ 
तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल ।
साधु सती और सूर का , अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥ 
ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर ।
तीनों निकसि न बाहुरैं , साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥ 
आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं ।
लाहा कारण आपने , सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥ 
जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि ।
जो चाहै दीदार को , इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥ 
कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुँची नाव ज्यों , मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥ 
सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और ।
मान सरोवर हंस है , बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥ 
सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय ।
सेवा कीजै साधु की , जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥
संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय ।
लोहा पारस परस ते , सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥ 
मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त ।
भव सागर से पार हैं , तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥ 
दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव ।
येते लक्षण साधु के , कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥  
सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त ।
ज्ञान बिना पशु जीवना , भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥ 
आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान ।
हरष शोक निन्दा तजै , कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥ 
आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर ।
शीतल सन्त शिरोमनी , उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥ 
यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय ।
कामी क्रोधी मस्खरा , तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥ 
कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस ।
सुपच भक्त की पनहि में , तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥ 
साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह ।
इक मन्दिर को का पड़ी , नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥ 
साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय ।
डग-डग पे असमेध जग , है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥ 
सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ ।
जग कुत्ता पीछे फिरैं , सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥ 
आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच ।
जब तब साधू तारसी , और सकल पर पंच ॥ 634 ॥ 
साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब ।
बानी के बिस्तार में , ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥ 
सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय ।
कहैं कबीर के हेत बिन , गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥ 
हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय ।
कबीर जल और सन्तजन , नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥ 
साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग ।
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं , चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥ 
सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग ।
ये ता तबही पाइये , पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥  

 ॥ भेष के विषय मे दोहे ॥  

चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस ।
ते मुक्ता कैसे चुंगे , पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥ 
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल ।
बोली बोले सियार की , कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥ 
साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार ।
बाहर भेष बनाइया , भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥
 तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय ।
सहजै सब सिधि पाइये , जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥ 
जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार ।
गुरुमुख बानी साधु संग , मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥ 
शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव ।
क्या रमता क्या बैठता , क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥ 
गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द ।
कहैं कबीर बैरागी को , निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥ 
पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय ।
तब गुरु आज्ञा लेय के , रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥ 
गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख ।
कहैं कबीर तो दुख पर वारों , कोटिक सूख ॥ 648 ॥ 
मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौवा भला , तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥ 
भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान ।
बिना कसौटी होत नहीं , कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥ 
कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट ।
मन के कूड़े देखि करि , ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥ 
बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम ।
मद माया और इस्तरी , नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥ 
फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल ।
साँच सिंह जब आ मिले , गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥ 
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।
दोऊ चूकि खाली पड़े , ताको वार न पार ॥ 654 ॥ 
धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग ।
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥ 
घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग ।
बैरागी बन्ध करै , ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥  

 ॥ भीख के विषय मे दोहे ॥

उदर समाता माँगि ले , ताको नाहिं दोष ।
कहैं कबीर अधिका गहै , ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥ 
अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख ।
जब लग तू घर में रहै , मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥ 
माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं ।
तिनते पहिले वे मरे , होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥ 
माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख ।
कहैं कबीर समझाय के , मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥ 
उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर ।
अधिकहिं संग्रह ना करै , तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥ 
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह ।
यह तीनों तब ही गये , जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥ 
सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि ।
कहैं कबीर वह रक्त है , जामें एंचातानि ॥ 663 ॥ 
अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय ।
कहैं कबीर निकृष्टि सो , पर धर धरना देय ॥ 664 ॥ 
अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष ।
उदर समाता माँगि ले , निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥ 
 

 ॥ संगति पर दोहे ॥ 


कबीरा संगत साधु की , नित प्रति कीर्ज जाय ।
दुरमति दूर बहावसी , देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥ 
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।
कबीर संगत साधु की , करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥ 
कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय ।
सकल बिरछ चन्दन भये , बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥ 
मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग ।
कहैं कबीर कोरी गजी , कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥ 
साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह ।
कबहुँ भाव कुभाव ते , जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥
 साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग ।
संगति सो सुधरा नहीं , ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥ 
साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय ।
कहैं कबीर तिहु लोक में , सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥ 
गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार ।
मूरख मित्र न कीजिये , बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥ 
संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय ।
कागा ते हंसा बनै , जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥ 
भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय ।
सब अंग तो विष सों भरा , अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥  
तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल ।
काची सरसों पेरिकै , खरी भया न तेल ॥ 676 ॥ 
काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान ।
काचा सेती मिलत ही , है तन धन की हान ॥ 677 ॥ 
कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव ।
मूरख होय न ऊजला , ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥ 
मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय ।
कोयला होय न ऊजला , सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥ 
ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट ।
ज्ञानी को आनी मिलै , हौवै माथा कूट ॥ 680॥ 
साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह ।
पारस तक पहुँचा नहीं , रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥
ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय ।
संगति भई कलाल की , मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥ 
जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय ।
जु दिन जाय सत्संग में , जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥ 
दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय ।
कोटि जतन परमोधिये , कागा हंस न होय ॥ 684 ॥ 
जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय ।
ऐसे संग छछून्दरी , दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥ 
प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय ।
जैसे पाइ छछून्दरी , पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥ 
कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय ।
विषधर को मणिधर मिले , विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥ 
सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात ।
गहदा सो गहदा मिले , खावे दो दो लात ॥ 688 ॥ 
तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज ।
तारै पर बोरे नहीं , बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥
मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ ।
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥ 
लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति ।
अपनी सीची जानि के , यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥
साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग ।
कूप खनी जल बावरे , त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥ 
संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग ।
लर-लर लोई हेत है , तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥ 
तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल ।
संगति को बेरो भयो , ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥ 
साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय ।
ओछी संगत खर शब्द रू , घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥ 
संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत ।
साकुट काली कामली , धोते होय न सेत ॥ 696 ॥ 
चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय ।
ध्यान धरो तब एकिला , और न दूजा कोय ॥ 697 ॥ 
सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग ।
मैले से निरमल भये , साधू जन को संग ॥ 698 ॥ 
 

  ॥ सेवक पर दोहे ॥ 

सतगुरु शब्द उलंघ के , जो सेवक कहूँ जाय ।
जहाँ जाय तहँ काल है , कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥ 
तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय ।
जों गुरु राखै त्यों रहै , जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥

सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय ।
कहैं कबीर सेवा बिना , सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥ 
अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय ।
यों जल छूटी माछरी , तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥ 
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय ।
सिर ऊपर आरा सहै , तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥ 
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल ।
लोक वेद दोनों गये , आये सिर पर काल ॥ 704 ॥ 
आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल ।
शुक्र कही बलि ना करीं , ताते गयो पताल ॥ 705 ॥ 
द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय ।
कबहुक धनी निवाजि है , जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥ 
उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख ।
कहैं कबीर संसार में , सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥ 
कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर ।
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥ 
गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय ।
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय , बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥ 
गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं , यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥ 
यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग ।
सावधान सम ध्यान है , गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥
ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत ।
सत्यवार परमारथी , आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥ 
दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान ।
सन्तोषी सुख दायका , सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥ 
शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता , कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥ 
 

  ॥ दासता पर दोहे ॥ 

कबीर गुरु कै भावते , दूरहि ते दीसन्त ।
तन छीना मन अनमना , जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥ 
कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय ।
जब लग आश शरीर की , तब लग दास न होय ॥ 716 ॥ 
सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग ।
रंग न लागै का , व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥ 
गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास ।
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै , मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥ 
लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ ।
कहैं कबीर वा दास सो , काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥ 
काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय ।
फिर फिर वाकूं बन्दिये , दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥ 
दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास ।
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥ 
दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन ।
कहैं कबीर सो दास है , प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥ 
दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास ।
पानी के पीये बिना , कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥ 

  ॥ भक्ति पर दोहे ॥ 

भक्ति कठिन अति दुर्लभ , भेष सुगम नित सोय ।
भक्ति जु न्यारी भेष से , यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥ 
भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त ।
ऊँच-नीच धर अवतरै , होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥  
भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय ।
सरिता सोई सराहिये , जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥ 
भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय ।
और न कोई चढ़ि सकै , निज मन समझो आय ॥ 727 ॥ 
भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम ।
सीस उतारे हाथ सों , ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥ 
भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय ।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो , पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥ 
भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश ।
भक्त लीन गुरु चरण में , भेष जगत की आश ॥ 730 ॥ 
कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज ।
बार-बार नहिं पाइये , मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥ 
भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय ।
मन को मैगल होय रहा , कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥ 
भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय ।
शब्द सनेही होय रहे , घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥
भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय ।
जिन-जिन आलस किया , जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥ 
गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार ।
बिना साँच पहुँचे नहीं , महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥ 
भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव ।
भक्ति भाव इक रूप है , दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥ 
कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास ।
मन मनसा माजै नहीं , होन चहत है दास ॥ 737 ॥ 
कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार ।
धुवाँ का सा धौरहरा , बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥ 
जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय ।
कहैं कबीर सतगुरु मिलै , आवागमन नशाय ॥ 739 ॥
देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग ।
बिपति पड़े यों छाड़सी , केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥ 
आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय ।
करम जाल भौजाल में , भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥ 
जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कहैं कबीर वह क्यों मिलै , निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥ 
पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत ।
मायाधारी मसखरैं , लेते गये अऊत ॥ 743 ॥ 
निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान ।
निरद्वंद्वी की भक्ति है , निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥ 
तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान ।
सुमति गयी अति लोभ ते , भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥
 खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर ।
भक्ति बिगारी लालची , ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥ 
ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय ।
देखा देखी भक्ति का , रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥ 
भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट ।
निराधार का खोल है , अधर धार की चोट ॥ 748 ॥ 
भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥ 
भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय ।
जो कोई जन भक्ति करे , शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥  
और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म ।
कहैं कबीर पुकारि के , भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥
 विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान ।
सुखदाई सब जीव सों , यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥ 
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय ।
नीचे बाधिनि लुकि रही , कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥ 
भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव ।
पूरण भक्ति जब मिलै , कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥ 

 ॥ चेतावनी ॥ 

कबीर गर्ब न कीजिये , चाम लपेटी हाड़ ।
हयबर ऊपर छत्रवट , तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥ 
कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास ।
काल परौं भुंइ लेटना , ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥ 
कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस ।
टेसू फूला दिवस दस , खंखर भया पलास ॥ 757 ॥ 
कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस ।
ना जानो कित मारि हैं , कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥ 
कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल ।
दिवस चारि का पेखना , विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥ 
कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह ।
दिवस चार का पेखना , अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥ 
कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान ।
सबही ऊभ पन्थ सिर , राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥ 
कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय ।
यह पुर पटृन यह गली , बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥
 कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ ।
इस दिन तेरा छत्र सिर , देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥ 
कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव ।
कै सेवा करूँ साधु की , कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥ 
कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल ।
चेति सकै तो चेत ले , मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥ 
कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि ।
खेत बिचारा क्या करे , धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥ 
कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल ।
दिन दस के व्यवहार में , झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥ 
कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन ।
जीव परा बहू लूट में , जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥ 
कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार ।
जन्त्र बिचारा क्याय करे , गया बजावन हार ॥ 769 ॥ 
कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन ।
साँस नगारा कुँच का , बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥ 
कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए ।
केवट सो परचै नहीं , क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥
कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय ।
एक जु आया पारधी , लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥ 
कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार ।
हरूये-हरूये तरि गये , बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥ 
एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह ।
राजा राना राव एक , सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥ 
ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि ।
औसर चले बजाय के , है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥   
मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम ।
ऊजड़ जाय बसायेंगे , छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥
कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय ।
ऐसे ही जीव जायगा , काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥ 
कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक ।
कान पकरि के ले चला , ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥ 
कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत ।
सतगुरु शब्द बिसारिया , आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥ 
हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास ।
सब जग जरता देखि करि , भये कबीर उदास ॥ 780 ॥ 
आज काल के बीच में, जंगल होगा वास ।
ऊपर ऊपर हल फिरै , ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥
ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार ।
रावन जैसा चलि गया , लंका का सरदार ॥ 782 ॥ 
पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज ।
काल अचानक मारसी , ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥ 
आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत ।
अब पछितावा क्या करे , चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥ 
आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल ।
आज काल के करत ही , औसर जासी चाल ॥ 785 ॥ 
कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय ।
मीच सुनेगी पापिनी , दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥ 
सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग ।
ते मन्दिर खाले पड़े , बैठने लागे काग ॥ 787 ॥ 
ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय ।
वे मन्दिर खाले पड़े , रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥ 
ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय ।
एकहिं गुरु के नाम बिन , जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥ 
ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल ।
एक गुरु के नाम बिन , जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥ 
पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय ।
ना जानो क्या होयगा , पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥ 
मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन ।
मन माटी में मिल गया , ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥ 
घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत ।
आधा परवा ऊबरे , चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥ 
हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार ।
अजहुँ झोला बहुत है , घर आवै तब जान ॥ 794 ॥ 
पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान ।
अजहुँ झोला बहुत है , घर आवै तब जान ॥ 795 ॥ 
पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम ।
दिना चार के कारने , फिर-फिर रोके ठाम ॥ 796 ॥ 
कहा चुनावै मेड़िया, लम्बी भीत उसारि ।
घर तो साढ़े तीन हाथ , घना तो पौने चारि ॥ 797 ॥ 
यह तन काँचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ ।
टपका लागा फुटि गया , कछु न आया हाथ ॥ 798 ॥ 
कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय ।
इत के भये न ऊत के , चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥ 
जनमै मरन विचार के, कूरे काम निवारि ।
जिन पंथा तोहि चालना , सोई पंथ सँवारि ॥ 800 ॥ 

कुल खोये कुल ऊबरै, कुल राखे कुल जाय ।
राम निकुल कुल भेटिया , सब कुल गया बिलाय ॥ 801 ॥ 
दुनिया के धोखे मुआ, चला कुटुम की कानि ।
तब कुल की क्या लाज है , जब ले धरा मसानि ॥ 802 ॥ 
दुनिया सेती दोसती, मुआ, होत भजन में भंग ।
एका एकी राम सों , कै साधुन के संग ॥ 803 ॥
यह तन काँचा कुंभ है, यहीं लिया रहिवास ।
कबीरा नैन निहारिया , नाहिं जीवन की आस ॥ 804 ॥ 
यह तन काँचा कुंभ है, चोट चहूँ दिस खाय ।
एकहिं गुरु के नाम बिन , जदि तदि परलय जाय ॥ 805 ॥ 
जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय ।
ते भी होते मानवी , करते रंग रलियाय ॥ 806 ॥ 
मलमल खासा पहिनते, खाते नागर पान ।
टेढ़ा होकर चलते , करते बहुत गुमान ॥ 807 ॥ 
महलन माही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय ।
ते सपने दीसे नहीं , देखत गये बिलाय ॥ 808 ॥ 
ऊजल पीहने कापड़ा, पान-सुपारी खाय ।
कबीर गुरू की भक्ति बिन , बाँधा जमपुर जाय ॥ 809 ॥ 
कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम ।
कुल काकी लाजि है , जब जमकी धूमधाम ॥ 810 ॥ 
कुल करनी के कारने, हंसा गया बिगोय ।
तब कुल काको लाजि है , चाकिर पाँव का होय ॥ 811 ॥ 
मैं मेरी तू जानि करै, मेरी मूल बिनास ।
मेरी पग का पैखड़ा , मेरी गल की फाँस ॥ 812 ॥ 
ज्यों कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छौर ।
ऐसा लेखा मीच का , दौरि सकै तो दौर ॥ 813 ॥ 
इत पर धर उत है धरा, बनिजन आये हाथ ।
करम करीना बेचि के , उठि करि चालो काट ॥ 814 ॥ 
जिसको रहना उतघरा, सो क्यों जोड़े मित्र ।
जैसे पर घर पाहुना , रहै उठाये चित्त ॥ 815 ॥
मेरा संगी कोई नहीं, सबै स्वारथी लोय ।
मन परतीत न ऊपजै , जिय विस्वाय न होय ॥ 816 ॥ 
मैं भौंरो तोहि बरजिया, बन बन बास न लेय ।
अटकेगा कहुँ बेलि में , तड़फि- तड़फि जिय देय ॥ 817 ॥
 दीन गँवायो दूनि संग, दुनी न चली साथ ।
पाँच कुल्हाड़ी मारिया , मूरख अपने हाथ ॥ 818 ॥ 
तू मति जानै बावरे, मेरा है यह कोय ।
प्रान पिण्ड सो बँधि रहा , सो नहिं अपना होय ॥ 819 ॥ 
या मन गहि जो थिर रहै, गहरी धूनी गाड़ि ।
चलती बिरयाँ उठि चला , हस्ती घोड़ा छाड़ि ॥ 820 ॥ 
तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय ।
कोई काहू का है नहीं , देखा ठोंकि बजाय ॥ 821 ॥ 
डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार ।
डरत रहै सो ऊबरे , गाफिल खाई मार ॥ 822 ॥ 
भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय ।
भय पारस है जीव को , निरभय होय न कोय ॥ 823 ॥ 
भय बिन भाव न ऊपजै, भय बिन होय न प्रीति ।
जब हिरदै से भय गया , मिटी सकल रस रीति ॥ 824 ॥ 
काल चक्र चक्की चलै, बहुत दिवस औ रात ।
सुगन अगुन दोउ पाटला , तामें जीव पिसात ॥ 825 ॥  
बारी-बारी आपने, चले पियारे मीत ।
तेरी बारी जीयरा , नियरे आवै नीत ॥ 826 ॥ 
एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं ।
घर की नारी को कहै , तन की नारी जाहिं ॥ 827 ॥
बैल गढ़न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ ।
एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु , धिक दाढ़ी धिक मूँछ ॥ 828 ॥ 
यह बिरियाँ तो फिर नहीं, मनमें देख विचार ।
आया लाभहिं कारनै , जनम जुवा मति हार ॥ 829 ॥ 
खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद ।
बाँझ हिलावै पालना , तामें कौन सवाद ॥ 830 ॥ 
चले गये सो ना मिले, किसको पूछूँ जात ।
मात-पिता-सुत बान्धवा , झूठा सब संघात ॥ 831 ॥ 
विषय वासना उरझिकर जनम गँवाय जाद ।
अब पछितावा क्या करे , निज करनी कर याद ॥ 832 ॥
हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर ।
सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर ॥ 833 ॥ 
मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल ।
जिहि जिहि डाबर धर करो , तहँ तहँ मेले जाल ॥ 834 ॥ 
परदा रहती पदुमिनी, करती कुल की कान ।
घड़ी जु पहुँची काल की , छोड़ भई मैदान ॥ 835 ॥ 
जागो लोगों मत सुवो, ना करूँ नींद से प्यार ।
जैसा सपना रैन का , ऐसा यह संसार ॥ 836 ॥ 
क्या करिये क्या जोड़िये, तोड़े जीवन काज ।
छाड़ि छाड़ि सब जात है , देह गेह धन राज ॥ 837 ॥ 
जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग ।
सो घर भी खाली पड़े , बैठने लागे काग ॥ 838 ॥ 
कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं ।
ना जानूं कब जायगा , मोहि भरोसा नाहिं ॥ 839 ॥
जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध ।
माया मद तोकूँ चढ़ा , मत भूले मतिमंद ॥ 840 ॥ 
अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान ।
ऊँचा चढ़ि कर देखता , केतिक दुरि विमान ॥ 841 ॥ 
नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह ।
जो समझै तो समझ ले , खलक पलक में खोह ॥ 842 ॥ 
मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर ।
अविनाशी जो न मरे , तो क्यों मरे कबीर ॥ 843 ॥ 
मरूँ- मरूँ सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय ।
मरना था तो मरि चुका , अब को मरने जाय ॥ 844 ॥ 
एक बून्द के कारने, रोता सब संसार ।
अनेक बून्द खाली गये , तिनका नहीं विचार ॥ 845 ॥ 
समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान ।
गुरु का शब्द उछेद है , कहत सकल हम जान ॥ 846 ॥ 
राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान ।
पड़ोसी की जो दशा , भई सो अपनी जान ॥ 847 ॥ 
मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार ।
सत्य शब्द नहिं खोजई , जावै जम के द्वार ॥ 848 ॥ 
चेत सवेरे बाचरे, फिर पाछे पछिताय ।
तोको जाना दूर है , कहैं कबीर बुझाय ॥ 849 ॥ 
क्यों खोवे नरतन वृथा, परि विषयन के साथ ।
पाँच कुल्हाड़ी मारही , मूरख अपने हाथ ॥ 850 ॥  
आँखि न देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान ।
सिर के केस उज्ज्वल भये , अबहु निपट अजान ॥ 851 ॥ 
ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार ।
कहैं कबीर सो बाँचि है , और सकल जमधार ॥ 852 ॥ 
 

 ॥ काल के विषय मे दोहे ॥ 

जोबन मिकदारी तजी , चली निशान बजाय ।
सिर पर सेत सिरायचा दिया बुढ़ापै आय ॥ 853 ॥ 
कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी बिहाय ।
जिव जंजाले पड़ि रहा , दियरा दममा आय ॥ 854 ॥ 
झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद ।
जगत् चबैना काल का , कछु मूठी कछु गोद ॥ 855 ॥ 
काल जीव को ग्रासई, बहुत कह्यो समुझाय ।
कहैं कबीर में क्या करूँ , कोई नहीं पतियाय ॥ 856 ॥ 
निश्चय काल गरासही, बहुत कहा समुझाय ।
कहैं कबीर मैं का कहूँ , देखत न पतियाय ॥ 857 ॥ 
जो उगै तो आथवै, फूलै सो कुम्हिलाय ।
जो चुने सो ढ़हि पड़ै , जनमें सो मरि जाय ॥ 858 ॥ 
कुशल-कुशल जो पूछता, जग में रहा न कोय ।
जरा मुई न भय मुवा , कुशल कहाँ ते होय ॥ 859 ॥ 
जरा श्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त ।
दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र ॥ 860 ॥ 
बिरिया बीती बल घटा, केश पलटि भये और ।
बिगरा काज सँभारि ले , करि छूटने की ठौर ॥ 861 ॥ 
यह जीव आया दूर ते, जाना है बहु दूर ।
बिच के बासे बसि गया , काल रहा सिर पूर ॥ 862 ॥ 
कबीर गाफिल क्यों फिरै क्या सोता घनघोर ।
तेरे सिराने जम खड़ा , ज्यूँ अँधियारे चोर ॥ 863 ॥ 
कबीर पगरा दूर है, बीच पड़ी है रात ।
न जानों क्या होयेगा , ऊगन्ता परभात ॥ 864 ॥ 
कबीर मन्दिर आपने, नित उठि करता आल ।
मरहट देखी डरपता , चौडढ़े दीया डाल ॥ 865 ॥ 
धरती करते एक पग, समुंद्र करते फाल ।
हाथों परबत लौलते , ते भी खाये काल ॥ 866 ॥ 
आस पास जोधा खड़े, सबै बजावै गाल ।
मंझ महल से ले चला , ऐसा परबल काल ॥ 867 ॥ 
चहुँ दिसि पाका कोट था, मन्दिर नगर मझार ।
खिरकी खिरकी पाहरू , गज बन्दा दरबार ॥
चहुँ दिसि ठाढ़े सूरमा , हाथ लिये हाथियार ।
सबही यह तन देखता , काल ले गया मात ॥ 868 ॥ 
हम जाने थे खायेंगे, बहुत जिमि बहु माल ।
ज्यों का त्यों ही रहि गया , पकरि ले गया काल ॥ 869 ॥ 
काची काया मन अथिर, थिर थिर कर्म करन्त ।
ज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरै , त्यों-त्यों काल हसन्त ॥ 870 ॥ 
हाथी परबत फाड़ते, समुन्दर छूट भराय ।
ते मुनिवर धरती गले , का कोई गरब कराय ॥ 871 ॥ 
संसै काल शरीर में, विषम काल है दूर ।
जाको कोई जाने नहीं , जारि करै सब धूर ॥ 872 ॥ 
बालपना भोले गया, और जुवा महमंत ।
वृद्धपने आलस गयो , चला जरन्ते अन्त ॥ 873 ॥ 
बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावै थाल ।
आवन-जावन होय रहा , ज्यों कीड़ी का नाल ॥ 874 ॥
ताजी छूटा शहर ते , कसबे पड़ी पुकार ।
दरवाजा जड़ा ही रहा , निकस गया असवार ॥ 875 ॥ 
खुलि खेलो संसार में, बाँधि न सक्कै कोय ।
घाट जगाती क्या करै , सिर पर पोट न होय ॥ 876 ॥ 
घाट जगाती धर्मराय, गुरुमुख ले पहिचान ।
छाप बिना गुरु नाम के , साकट रहा निदान ॥ 877 ॥ 
संसै काल शरीर में, जारि करै सब धूरि ।
काल से बांचे दास जन जिन पै द्दाल हुजूर ॥ 878 ॥ 
ऐसे साँच न मानई, तिलकी देखो जाय ।
जारि बारि कोयला करे , जमते देखा सोय ॥ 879 ॥
जारि बारि मिस्सी करे, मिस्सी करि है छार ।
कहैं कबीर कोइला करै , फिर दै दै औतार ॥ 880 ॥ 
काल पाय जब ऊपजो, काल पाय सब जाय ।
काल पाय सबि बिनिश है , काल काल कहँ खाय ॥ 881 ॥
पात झरन्ता देखि के, हँसती कूपलियाँ ।
हम चाले तु मचालिहौं , धीरी बापलियाँ ॥ 882 ॥ 
फागुन आवत देखि के, मन झूरे बनराय ।
जिन डाली हम केलि , सो ही ब्योरे जाय ॥ 883 ॥ 
मूस्या डरपैं काल सों, कठिन काल को जोर ।
स्वर्ग भूमि पाताल में जहाँ जावँ तहँ गोर ॥ 884 ॥ 
सब जग डरपै काल सों, ब्रह्मा, विष्णु महेश ।
सुर नर मुनि औ लोक सब , सात रसातल सेस ॥ 885॥ 
कबीरा पगरा दूरि है, आय पहुँची साँझ ।
जन-जन को मन राखता , वेश्या रहि गयी बाँझ ॥ 886 ॥ 
जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय ।
सो अब कहँ दीसै नहीं , छिन में गयो बोलाय ॥ 887 ॥ 
काल फिरे सिर ऊपरै, हाथों धरी कमान ।
कहैं कबीर गहु ज्ञान को , छोड़ सकल अभिमान ॥ 888 ॥ 
काल काल सब कोई कहै, काल न चीन्है कोय ।
जेती मन की कल्पना , काल कहवै सोय ॥ 889 ॥ 

 ॥ उपदेश ॥ 

काल काम तत्काल है , बुरा न कीजै कोय ।
भले भलई पे लहै , बुरे बुराई होय ॥ 890 ॥ 
काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय ।
अनबोवे लुनता नहीं , बोवे लुनता होय ॥ 891 ॥ 
लेना है सो जल्द ले, कही सुनी मान ।
कहीं सुनी जुग जुग चली , आवागमन बँधान ॥ 892 ॥ 
खाय-पकाय लुटाय के, करि ले अपना काम ।
चलती बिरिया रे नरा , संग न चले छदाम ॥ 893 ॥ 
खाय-पकाय लुटाय के, यह मनुवा मिजमान ।
लेना होय सो लेई ले , यही गोय मैदान ॥ 894 ॥ 
गाँठि होय सो हाथ कर, हाथ होय सी देह ।
आगे हाट न बानिया , लेना होय सो लेह ॥ 895 ॥ 
देह खेह खोय जायगी, कौन कहेगा देह ।
निश्चय कर उपकार ही , जीवन का फल येह ॥ 896 ॥ 
कहै कबीर देय तू, सब लग तेरी देह ।
देह खेह होय जायगी , कौन कहेगा देह ॥ 897 ॥ 
देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह ।
बहुरि न देही पाइये , अकी देह सुदेह ॥ 898 ॥ 
सह ही में सत बाटई, रोटी में ते टूक ।
कहैं कबीर ता दास को , कबहुँ न आवे चूक ॥ 899 ॥ 
कहते तो कहि जान दे, गुरु की सीख तु लेय ।
साकट जन औ श्वान को , फेरि जवाब न देय ॥ 900 ॥

हती चिढ़ये ज्ञान की, सहज दुलीचा डार ।
श्वान रूप ससार है, भुकन दे झक मार ॥ 901 ॥ 
या दुनिया  दो रोज की, मत कर या सो हेत ।
गुरु चरनन चित लाइये, जो पुरन सुख हेत ॥ 902 ॥ 
कबीर यह तन जात है,सको तो राखु बहोर।
खालो हाथो वह गये,जिनके लाख करोर।।903।।
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