वन-सरंक्षण की दिशा मेंप्रयास-
राजस्थान में वन संरक्षण के लिए एकीकृत वन विभाग की स्थापना 1951 में की गई, तब राजस्थान के सभी वनों को नियमित वैज्ञानिक प्रबंध के अंतर्गत लिया गया और वनों की सीमा का सीमांकन किया गया। लगभगसभी वन-क्षेत्रों या फारेस्ट-ब्लॉक्स को राजस्थान वन अधिनियम 1953 के अंतर्गत अधिसूचित किया गया । सन 1960 में जमीदारी उन्मूलन के साथ जागीर एवं जमीन वन राजस्थान वन विभाग के नियंत्रण मेंआ गए। जंगलों का वैज्ञानिक प्रबंधन के लिए सभी वन प्रभागों के पास नियमित रूपसे कार्ययोजना है। राज्य के शुष्क परिस्थितियों तथा मरुस्थलीकरण को कम करने के लिए व्यापक वनीकरण योजनाओं रूप मेंअच्छी तरह से लागू की गई।
राजस्थान में वन संरक्षण के लिए एकीकृत वन विभाग की स्थापना 1951 में की गई, तब राजस्थान के सभी वनों को नियमित वैज्ञानिक प्रबंध के अंतर्गत लिया गया और वनों की सीमा का सीमांकन किया गया। लगभगसभी वन-क्षेत्रों या फारेस्ट-ब्लॉक्स को राजस्थान वन अधिनियम 1953 के अंतर्गत अधिसूचित किया गया । सन 1960 में जमीदारी उन्मूलन के साथ जागीर एवं जमीन वन राजस्थान वन विभाग के नियंत्रण मेंआ गए। जंगलों का वैज्ञानिक प्रबंधन के लिए सभी वन प्रभागों के पास नियमित रूपसे कार्ययोजना है। राज्य के शुष्क परिस्थितियों तथा मरुस्थलीकरण को कम करने के लिए व्यापक वनीकरण योजनाओं रूप मेंअच्छी तरह से लागू की गई।
राज्य के वनों की सामान्य विशेषताएं-
राजस्थान का क्षेत्रफल नॉर्वे (3, 24,200 वर्गकिमी), पोलैंड (3, 12,600 वर्ग किमी) और इटली (3, 01,200 वर्गकिमी) जैसे कुछ पश्चिमी दुनिया के विकसित देशों के लगभगबराबर है।
राजस्थान का क्षेत्रफल नॉर्वे (3, 24,200 वर्गकिमी), पोलैंड (3, 12,600 वर्ग किमी) और इटली (3, 01,200 वर्गकिमी) जैसे कुछ पश्चिमी दुनिया के विकसित देशों के लगभगबराबर है।
राजस्थान में वनों का कुल क्षेत्रफल 32,638.74 वर्ग किलोमीटर है जो राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 9.54% है।
राजस्थान में वनक्षेत्र उत्तरी , दक्षिणी ,पूर्वी औरदक्षिण-पूर्वी भागों मेंअसमान रूप से फैले हुए हैं।
राज्य में सागौन वन विद्यमान हैं जो भारत में सागौन वनक्षेत्र की सबसे उत्तरी सीमा है। राजस्थान के ज्यादातर वन edapho-climatic climaxवन हैं।
राज्य मेंवन न केवल आंशिक रूप से ईंधन की लकड़ी और ग्रामीण लोगों के चारे की मांग को पूरा करते हैं बल्कि राज्य घरेलू उत्पाद (एसडीपी) में Rs.7160 मिलियन योगदान करते हैं।
राज्य मेंवन न केवल आंशिक रूप से ईंधन की लकड़ी और ग्रामीण लोगों के चारे की मांग को पूरा करते हैं बल्कि राज्य घरेलू उत्पाद (एसडीपी) में Rs.7160 मिलियन योगदान करते हैं।
राजस्थान में प्राकृतिक वनों की हद न केवल देश में सबसे कम है, लेकिन यह वन-उत्पादकता की दृष्टि से भी सबसे कम है।
इसके विपरीत राजस्थान बंजर भूमि की सबसे बड़ी मात्रा के साथ समृद्ध राज्य है जो देश की कुल बंजरभूमि का लगभग20% है।
राजस्थान में15 वर्षो मेंयहाँ के वन क्षेत्र में वृद्धि हुई है। वर्ष 1990-91 में जहाँ राज्य में वन क्षेत्र का प्रतिशत 6.87 था , वह वर्ष 2005-06 में9.54 प्रतिशत हो गया।
राजस्थान में वन क्षेत्र का विस्तार 32,638.74 वर्ग किमी है, जो राज्य के कुल क्षेत्र का 9.54 प्रतिशत है। यह प्रतिशत राष्ट्रीय वन नीति द्वारा निर्धारित 33.33 प्रतिशत से बहुत कम है।
प्रदेश में सर्वाधिक प्रतिशत वन-क्षेत्र करौली जिले में 34.21 प्रतिशत है। राज्य में सबसे कम वन क्षेत्रफल वाला जिला चूरूहै जिसमें मात्र 71 वर्ग किमी. वनक्षेत्र है जो अर्थात 0.48 प्रतिशत है।
जैसलमेर, नागौर, बाड़मेर, बीकानेर, जौधपुर, टोंक, गंगानगर, हनुमानगढ़ तथा जालौर जिले ऐसे हैं जहाँ वनों का क्षेत्र 5 प्रतिशत से कम है। सामान्य रूपसे राजस्थान में शुष्क सागवान वन, सालर वन, ढाक अथवा पलाश के वन, मरूस्थली वनस्पति, शुष्क पतझड़ वन तथा मिश्रित वन मिलते है।
राज्य में वन क्षेत्रों के सीमित विस्तार के कारण-
यहाँ कम वर्षा होना
उच्च तापमान
मरूस्थली क्षेत्रों का अधिक विस्तार
अनियन्त्रित पशुचारण तथा
मानव द्वारा किया जाने वाला वनोन्मूलन
यहाँ कम वर्षा होना
उच्च तापमान
मरूस्थली क्षेत्रों का अधिक विस्तार
अनियन्त्रित पशुचारण तथा
मानव द्वारा किया जाने वाला वनोन्मूलन
वन संसाधनों का प्राकृतिक महत्व-
वन एक प्राकृतिक संसाधन है जिनका बहुमुखी उपयोग है। वन पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी संतुलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
वन एक प्राकृतिक संसाधन है जिनका बहुमुखी उपयोग है। वन पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी संतुलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
जैव-विविधता को संरक्षित रखतेहैं।
जलवायु परिवर्तन को रोकते है।
पर्यावरण को शुद्ध रखतेहैं।
प्राकृतिक सुंदरता में अभिवृद्धि करते हैं।
जलवायु को सम बनाते हैं,
तापमान में वृद्धि रोकते हैं।
आर्द्रता मेंवृद्धि कर वर्षा में सहायक है।
मिट्टी के कटान को रोकते है।
वनों का आर्थिक महत्व-
राज्य में वनों से लगभग हजारों व्यक्तियों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रोजगार मिलता है। राजस्थान के वनों से जो मुख्य उपजें प्राप्त होती हैं वेनिम्न हैं-
वनों से इमारती लकड़ी (सागवान, धोकड़ा, सालर, शीषम, बबूल, आदि से) तथा ईंधन हेतु लकड़ी और कोयला प्राप्त होते है तेंदू पत्ता एक महत्वपूर्ण उत्पाद है , जिसका उपयोग बीड़ी बनाने में होता है वनों से बाँस, गोंद, कत्था, लाख, घास, खस, महुआ एवं अनेक प्रकार की औषधियां प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त वनों से आँवला, कैर, बैर, शहद, मोम, तेंदू तथा अनेक कन्दमूल प्राप्त होते है।
राज्य में वनों से लगभग हजारों व्यक्तियों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रोजगार मिलता है। राजस्थान के वनों से जो मुख्य उपजें प्राप्त होती हैं वेनिम्न हैं-
वनों से इमारती लकड़ी (सागवान, धोकड़ा, सालर, शीषम, बबूल, आदि से) तथा ईंधन हेतु लकड़ी और कोयला प्राप्त होते है तेंदू पत्ता एक महत्वपूर्ण उत्पाद है , जिसका उपयोग बीड़ी बनाने में होता है वनों से बाँस, गोंद, कत्था, लाख, घास, खस, महुआ एवं अनेक प्रकार की औषधियां प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त वनों से आँवला, कैर, बैर, शहद, मोम, तेंदू तथा अनेक कन्दमूल प्राप्त होते है।
राजस्थान में वनों के प्रकार -
राजस्थान पुष्पीय सम्पदा की दृष्टि से समृद्ध है किन्तु यह विभिन्नता लिए हुए छितराया हुआ है। चूँकि राज्य का पश्चिमी भाग मरू क्षेत्र है, अतः अधिकतर वन क्षेत्र पूर्वी तथा दक्षिणी भाग में ही सीमित है, जहां के वन असमान रूपसे विभिन्न जिलों मेंफैले हुए है।
राज्य का अधिकाँश वन क्षेत्र पर्वतीय क्षेत्रों जैसे उदयपुर, राजसमन्द, चित्तौड़गढ़, प्रतापगढ़, डूंगरपुर, बांसवाडा, कोटा, बारां, सवाईमाधोपुर, सिरोही, बूंदी, झालावाड़, अलवर, में हैं जो राज्य के वनों का लगभग50 % है। राज्य में सघन प्राकृतिक वन अधिकतर विभिन्न राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों जैसे संरक्षित क्षेत्रों तक ही सीमित हैं। राज्य के शेष वनीय इलाके में से क्षेत्र अधिकांश वृक्षारोपण विभिन्न चरणों द्वारा विकसित किये गएक्षेत्रों के रूप मेंहैं।
राजस्थान पुष्पीय सम्पदा की दृष्टि से समृद्ध है किन्तु यह विभिन्नता लिए हुए छितराया हुआ है। चूँकि राज्य का पश्चिमी भाग मरू क्षेत्र है, अतः अधिकतर वन क्षेत्र पूर्वी तथा दक्षिणी भाग में ही सीमित है, जहां के वन असमान रूपसे विभिन्न जिलों मेंफैले हुए है।
राज्य का अधिकाँश वन क्षेत्र पर्वतीय क्षेत्रों जैसे उदयपुर, राजसमन्द, चित्तौड़गढ़, प्रतापगढ़, डूंगरपुर, बांसवाडा, कोटा, बारां, सवाईमाधोपुर, सिरोही, बूंदी, झालावाड़, अलवर, में हैं जो राज्य के वनों का लगभग50 % है। राज्य में सघन प्राकृतिक वन अधिकतर विभिन्न राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों जैसे संरक्षित क्षेत्रों तक ही सीमित हैं। राज्य के शेष वनीय इलाके में से क्षेत्र अधिकांश वृक्षारोपण विभिन्न चरणों द्वारा विकसित किये गएक्षेत्रों के रूप मेंहैं।
राजस्थान के वनों को निम्नांकित 4 व्यापक प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
1. उष्णकटिबंधीय कंटक वन ( Tropical Thorn Forests) -
येवन पश्चिमी राजस्थान के शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों मेंपाए जाते हैं।ये वन
पश्चिमी भारत-पाक सीमा से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे अरावली पहाड़ियों के शुष्क पतझड़ मिश्रित वन और दक्षिण- पूर्वी पठार के साथ विलय हो जाते हैं।
इस वन क्षेत्र में प्रमुख रूपसे बबूल, केर, खेजड़ा (खेजड़ी-राज्य वृक्ष), कीकर, विलायती बबूल, बेर, रोहिड़ा, थूहड़ (थोर), नागफनी, ग्वारपाठा आदि वृक्ष पाए जाते हैं। इन वनों मूल रूप से राजस्थान के पश्चिमी भाग अर्थात् जोधपुर ,
पाली , जालोर , बाड़मेर , नागौर , चुरू , बीकानेर आदि जिलों में पाए जाते हैं।
1. उष्णकटिबंधीय कंटक वन ( Tropical Thorn Forests) -
येवन पश्चिमी राजस्थान के शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों मेंपाए जाते हैं।ये वन
पश्चिमी भारत-पाक सीमा से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे अरावली पहाड़ियों के शुष्क पतझड़ मिश्रित वन और दक्षिण- पूर्वी पठार के साथ विलय हो जाते हैं।
इस वन क्षेत्र में प्रमुख रूपसे बबूल, केर, खेजड़ा (खेजड़ी-राज्य वृक्ष), कीकर, विलायती बबूल, बेर, रोहिड़ा, थूहड़ (थोर), नागफनी, ग्वारपाठा आदि वृक्ष पाए जाते हैं। इन वनों मूल रूप से राजस्थान के पश्चिमी भाग अर्थात् जोधपुर ,
पाली , जालोर , बाड़मेर , नागौर , चुरू , बीकानेर आदि जिलों में पाए जाते हैं।
2. उष्णकटिबंधीय शुष्क पतझड़ वन ( Tropical Dry Deciduous Forests) -
ये वन राज्य के अरावली पर्वतमाला के उत्तरी और पूर्वी ढलान के कुछ हिस्सों में छोटे-छोटे टुकड़ों में पाए जाते हैं, जो ज्यादातर अलवर, भरतपुर औरधौलपुर जिलों मेंहैं। शुष्क पतझड़ वन की कुछ प्रजातियों की छिटपुट विकास जालौर , नागौर , गंगानगर और बीकानेर जिलों की नदियों के शुष्क प्रवाह क्षेत्रों मेंपाया जाता है। वनों के इस प्रकार में पायी जाने वाली मुख्य वृक्ष प्रजातियां धावा (धावड़ा) , ढाक (पलाश) , बबूल, खैर-कत्था , बहेड़ा , अर्जुन वृक्ष ,सेमल,बांस ,सागवान , गूलर, आम,बरगद,आंवला आदि है।
ये वन राज्य के अरावली पर्वतमाला के उत्तरी और पूर्वी ढलान के कुछ हिस्सों में छोटे-छोटे टुकड़ों में पाए जाते हैं, जो ज्यादातर अलवर, भरतपुर औरधौलपुर जिलों मेंहैं। शुष्क पतझड़ वन की कुछ प्रजातियों की छिटपुट विकास जालौर , नागौर , गंगानगर और बीकानेर जिलों की नदियों के शुष्क प्रवाह क्षेत्रों मेंपाया जाता है। वनों के इस प्रकार में पायी जाने वाली मुख्य वृक्ष प्रजातियां धावा (धावड़ा) , ढाक (पलाश) , बबूल, खैर-कत्था , बहेड़ा , अर्जुन वृक्ष ,सेमल,बांस ,सागवान , गूलर, आम,बरगद,आंवला आदि है।
3. केन्द्रीय भारतीय उपोष्णकटिबंधीय पर्वतीय वन
( Central Indian Sub - tropical Hill Forests) -
येवन मध्य भारत के मध्य प्रदेश प्रान्त में, गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में सबसे प्रचुर मात्रा पाए जाते हैं। राज्य में ये वन सिरोही जिले में, अधिकतर माउंट आबू के इर्द-गिर्द की पहाड़ियों पर पाए जाते हैं।
इन वनों में अर्द्ध सदाबहार और कुछ सदाबहार वृक्षों की प्रजातियां मिलती है ।
माउंट आबू की वनस्पति में कई प्रकार के पौधें है जो हिमालय की उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र वृक्षों के समान हैं। ये वृक्ष माउंट आबू चारों ओर 700 मीटर से 800 ऊंचाई के मध्य प्रचुर रूप से पाए जाते हैं।
( Central Indian Sub - tropical Hill Forests) -
येवन मध्य भारत के मध्य प्रदेश प्रान्त में, गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में सबसे प्रचुर मात्रा पाए जाते हैं। राज्य में ये वन सिरोही जिले में, अधिकतर माउंट आबू के इर्द-गिर्द की पहाड़ियों पर पाए जाते हैं।
इन वनों में अर्द्ध सदाबहार और कुछ सदाबहार वृक्षों की प्रजातियां मिलती है ।
माउंट आबू की वनस्पति में कई प्रकार के पौधें है जो हिमालय की उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र वृक्षों के समान हैं। ये वृक्ष माउंट आबू चारों ओर 700 मीटर से 800 ऊंचाई के मध्य प्रचुर रूप से पाए जाते हैं।
4. विविध मिश्रित वन ( Mixed Miscellaneous Forests) -
ये वन अधिकतर राजस्थान के दक्षिण पूर्वी और पूर्वी भाग में चित्तौड़गढ़ , कोटा , उदयपुर, सिरोही , बांसवाड़ा , डूंगरपुर, बारां और झालावाड़ जिलों में पाए जाते हैं। इनमें मिश्रित प्रकार के पेड़-पौधे पाए जाते हैं। धावा (धावड़ा) ,ढाक , बबूल, खैर- कत्था , हरड़, बहेड़ा , अर्जुन , सेमल, बांस , शीशम, नीम, सागवान आदि इनमे प्रमुख है।
ये वन अधिकतर राजस्थान के दक्षिण पूर्वी और पूर्वी भाग में चित्तौड़गढ़ , कोटा , उदयपुर, सिरोही , बांसवाड़ा , डूंगरपुर, बारां और झालावाड़ जिलों में पाए जाते हैं। इनमें मिश्रित प्रकार के पेड़-पौधे पाए जाते हैं। धावा (धावड़ा) ,ढाक , बबूल, खैर- कत्था , हरड़, बहेड़ा , अर्जुन , सेमल, बांस , शीशम, नीम, सागवान आदि इनमे प्रमुख है।
प्रशासनिक दृष्टि से राज्य के वनों की तीन श्रेणियां-
प्रशासनिक दृष्टि से राज्य के वनों को तीन श्रेणियो मेंविभक्त किया गया है -
1- आरक्षित वन - जिन पर पूर्ण सरकारी नियंत्रण होता है।
2- सुरक्षित वन - इनमें लकड़ी काटने, पशुचारण की सीमित सुविधा दी जाती है तथा इनको संरक्षित रखने का भी प्रयत्न किया जाता है।
3- अवर्गीकृत वन - इनमें शेष वन सम्मिलित किये जाते है, जिन पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता
प्रशासनिक दृष्टि से राज्य के वनों को तीन श्रेणियो मेंविभक्त किया गया है -
1- आरक्षित वन - जिन पर पूर्ण सरकारी नियंत्रण होता है।
2- सुरक्षित वन - इनमें लकड़ी काटने, पशुचारण की सीमित सुविधा दी जाती है तथा इनको संरक्षित रखने का भी प्रयत्न किया जाता है।
3- अवर्गीकृत वन - इनमें शेष वन सम्मिलित किये जाते है, जिन पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता
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